ए आर आज़ाद
देश की मौजूदा सरकार सुधारवादी सरकार का तम़गा पहनना चाहती है। और तम़गे के इस ताज को माथे का तिलक बनाने की छटपटाहट उसके मन-मस्तिष्क और कार्यशैली में तेज़ी के साथ रच-बस गई है। नतीजतन बिना किसी रणनीति के तु़ग़लकी फ़रमान जारी कर देती है। इस फ़रमान के क्रियान्वयन होने के बाद जब संपूर्ण देश में हायतौबा, हलचल और आंदोलन शुरू हो जाता है तो वह अपने थोप गए नियम, क़ायदे और क़ानून से पीछा छुड़ाती हुई दिखती है। और कभी संशोधन के ज़रिए अपनी लाज बचाने की कोशिश में जुट जाती है। यानी मौजूदा सरकार सुधार के नाम पर बिनाश की छाया पेश करती है। उदारहरण सबके सामने है। सरकार जिसे ऐतिहासिक ़कदम और साहसी सुधार बता रही थी उसका रूप कितना भयंकर था! सबने अपनी आंखों से देखा। याद कीजिए नोटबंदी। इसका सरकारी प्रचार-प्रसार कितने निर्लज्ज तरी़क़े से किया गया था और परिणाम कितना भयानक रूप में सामने आया? घर के युवा, महिलाएं, पुरुष और हत्ता बुज़ुर्गों तक को गरमी के तेज़ तपिश के बीच हर बैंकों के सामने ऐतिहासिक कतार में खड़ा करवा दिया गया। लोकतांत्रिक देश के नागरिकों के साथ ऐसा घृणित प्रयास किसी राजशाही शासन में भले हुआ हो लेकिन किसी भी लोकतांत्रिक देश में इस तरह का उदाहरण देखने-सुनने को नहीं मिलता है। इस दौरान सरकार के साहसी और ऐतिहासिक ़कदम से आर्थिक प्रगति का पहिया थम गया। नौकरियां ़खत्म होने के साथ-साथ ज़िंदगी भी मानो उदास हो गई। इसके बड़े-बड़े फायदे गिनाए गए लेकिन अमल में वह ठाक के तीन पात ही साबित हुआ। यह सरकार जनता के बीच ‘डाकू’ की तरह पेश आ रही है। सरकार आधी रात में जीएसटी लेकर आती है। महज़ चार घंटे की समय सीमा देकर लॉक डाउन कर देती है। कोरोना के विरुद्र 21 दिनों की लड़ाई बताती है और व्यापार से लेकर आपसी व्यवहार को भी घर में क़ैद कर देती है। सरकार का 21 दिन कब ख़त्म हुआ देश की जनता को मालूम है। इस लॉक डाउन के बाद देश की सारी अर्थव्यवस्था घाटे में तब्दील हो चुकी है। इस दौरान प्रवासी मज़दूरों की ज़िंदगी सड़कों और रेल की पटरियों पर मौत को गले लगाने जैसी बनकर रह गई है।
सरकार जीएसटी, नोटबंदी और कोविड-19 जैसे अपने तु़गलकी फरमान से उपजे हालात से सब़क नहीं सीख सकी और फिर सुधार के नाम पर ही कोविड-19 के बीच ही एक ऐसा फैसला लेकर आ गई जिसे अन्नदाता ने ख़ारिज ही नहीं किया बल्कि सरकार को आईना दिखाते हुए सड़कों पर उतरकर और लाल़िकले की प्राचीर पर अपना द़खल दिखाकर उसे अचंभित कर दिया। लेकिन अपनी ज़िद्दीपन के लिए मशहूर सरकार ने इस मामले पर भी अपनी हठ दिखा दी। सरकार ने तीन नए कृषि क़ानून लाकर किसानों के लिए नज़ीर पेश करने की बात कर रही है तो किसान इसे काला क़ानून कहकर सरकार की आंखों में आंख मिलाकर कहने को बाध्य है कि यह क़ानून नहीं, हमारे लिए काल है।
दरअसल मौजूदा सरकार की नज़र में सरलीकरण और सुधार का मतलब क्या है, अब तक किसी की समझ में नहीं आ सका है और न ही इसे मन की बात के ज़रिए पीएम ही समझा पाए हैं?
हमारी सरकार अपनी ज़िम्मेदारी को हु़कूमत के कंधों से सरकाते हुए शासन करना चाहती है। इस सरकार की शासन पद्दति पर ग़ौर करने के बाद पता चलता है कि यह सरकार ज़िम्मेदारियों से मुक्त होने की कल्पना-परिकल्पना को मूर्त रूप में कुछ ज़्यादा ही जल्दबाज़ी करती जा रही है। उदाहरण के तौर पर लाल़िकला जैसी धरोहर और लोकतंत्र का प्रतीक देश के सामने है। लाल़िकले की ज़िम्मेदारी से बचने के लिए सरकार ने इसे निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया। इसे विडम्बना कहा जाए या दुखद! यह बहुत ही एक सरकार के लिए और देश के नागरिकों के लिए सोचनीय, चिंतनीय और अ़फसोसनाक है। सरकार ने अपनी ज़िम्मेदारियों से हाथ खींचते हुए कॉरपोरेट सेक्टर और कई सरकारी उपक्रम के साथ ऐसा ही कुछ किया। रेलवे और वायुमार्ग सरकार की इसी कमज़ोरी की कड़ी बनकर देश की जनता के लिए हथकड़ी बन गई है। बीएसएनएल और रेलवे की तो सरकार ने दम ही निकाल दिया है।
अब सरकार तीन नए कृषि क़ानून को लाकर देश के किसानों की कमर तोड़ना चाह रही है। सरकार इस क़ानून के ज़रिए अपनी पीठ थपथपाते हुए और गाल बजाते हुए दावा कर रही है कि मंडियों में सुधार के लिए यह क़ानून लाया गया है। लेकिन जब इस ़कानून की पड़ताल करेंगे तो सरकार के इस दावे में विरोधाभास दिखता है। क्योंकि इस क़ानून में मंडियों की समस्याओं से उबरने का कोई रास्ता ही नहीं दिखाया गया है। यह क़ानून किसानों को फसल की ख़रीद-फ़रोख़्त की अंधी सुरंग से होकर ले जाने का ही रास्ता दिखाता है। अंधेरे से किसको डर नहीं लगता। क्या सरकार को इस ़कानून में किसानों की राह आसान करने के लिए उसकी बेहतरी का एक चिरा़ग नहीं जलाना चाहिए? इसपर अब भी सरकार को गंभीरतापूर्वक सोचना चाहिए।