किसानों के कंधों से फिसल गया सरकार का मास्टर स्ट्रोक!

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ए आर आज़ाद

किसानों की सीधी सी मांग है-तीनों काले क़ानून को वापस लिए जाएं। जब तीनों क़ानून को ही किसान काल और काला मान रहे हैं तो फिर उसे मियादी तौर पर स्थगित करने का क्या औचित्य हैया तो सरकार उसे पूरी तरह स्थगित करे या उसे न करे। सरकार को चालाकी नहींकिसानों से हमदर्दी दिखाने की ज़रूरत थी। लेकिन सरकार ने इतने दिनों से किसानों के साथ कोना-कोनाकौन कोना’ का खेल खेल रही है।

जिस पार्टी ने विपक्ष में रहकर किसानों और जवानों के नाम पर सियासत कर सत्ता तक पहुंची, उसी पार्टी से किसानों को छल का शिकार होना पड़ेगा, शायद ही किसी ने इतनी दूर तक जाकर सोचा होगा? ज़ाहिर है किसानों ने भी नहीं सोचा। लेकिन अब किसानों को भी सोचना पड़ रहा है। आ़िखर यह सब क्या है? यह सरकार की दरियादिली है, किसान के साथ दिल्लगी है या फिर किसानों की फौरी ज़रूरत ही सरकार को नहीं है ? जैसा भी कुछ हो लेकिन एक लोकतांत्रिक सरकार अन्नदाता के साथ ऐसा बर्ताव तो नहीं कर सकती जैसा वह अंसवेदनशील होकर कर रही है।

सरकार की मंशा पर उसका मास्टर स्ट्रोक ही सवालिया निशान खड़ा कर रहा है। 18 महीने के लिए इस क़ानून को स्थगित करने का मास्टर स्ट्रोक खेलकर सरकार ने हल की तरह इसे किसानों के कंधों पर रखना चाहा था ताकि किसान इसे सहमति से अपने कंधों में ले लें और सरकार का बोझ कम हो जाए! लेकिन किसानों ने अपनी प्राथमिकता और अपने उसूलों को पक्के तौर पर सामने लाकर सरकार के मास्टर स्ट्रोक को अपने कंधों पर आने ही नहीं दिया। यानी सरकार के मंसूबों का मास्टर स्ट्राइक किसान के कंधों से फिसल कर ज़मींदोज हो गया। अपनी इस रणनीति में सरकार विफल हो गई।

दरअसल सरकार की मंशा में ईमानदारी नाम की चीज़ नहीं थी। अन्नदाता के साथ सियासत का मतलब सरकार को समझना चाहिए। देश का किसान जिस कशमकश में जी रहा है, अगर उस देश की सरकार को इसका आभास नहीं हो तो फिर वह लोकतांत्रिक सरकार नहीं कही जा सकती है। देश के अन्नदाता के साथ देश की किसी भी राजनीतिक दल जो सत्तासीन है, अगर इस तरह का शासन करता है तो भारत जैसे लोकतांत्रिक देश पर उसे शासन करने का अधिकार नहीं है।

किसानों की सीधी सी मांग है-तीनों काले ़कानून को वापस लिए जाएं। जब तीनों ़कानून को ही किसान काल और काला मान रहे हैं तो फिर उसे मियादी तौर पर स्थगित करने का क्या औचित्य है? या तो सरकार उसे पूरी तरह स्थगित करे या उसे न करे। सरकार को चालाकी नहीं, किसानों से हमदर्दी दिखाने की ज़रूरत थी। लेकिन सरकार ने इतने दिनों से किसानों के साथ ‘कोना-कोना, कौन कोना’ का खेल खेल रही है।

इस आंदोलन को लंबा खींचकर सरकार ने ख़ुद अपने पांव पर ही कुल्हाड़ी मार ली है। सरकार ख़ुद अपने ही बुने जाल में फंसती चली गई। नतीजतन सुप्रीम कोर्ट के द़खल से हुई किरकिरी के बाद सरकार के पास किसानों की समस्याओं का निदान निकालने के अलावा कोई दूसरा रास्ता बचा नहीं था। उसे किसानों की मांग को मांग ही लेनी चाहिए थी। लेकिन सरकार और सत्तासीन दल ने एक मास्टर स्ट्रोक खेलकर किसानों को बहलाने की कोशिश की। लेकिन न तो किसान इस मास्टर स्ट्रोक के झांसे में आए, न वह बहले। इससे यह हुआ कि किसान और मज़बूती के साथ अपने स्वर को मुखर करते हुए आंदलोन को चरम पर लाने के लिए कटिबद्ध और प्रतिबद्ध हो गए। और सरकार अपने मास्टर स्ट्रोक के जाल में ख़ुद फंस गई।

दरअसल किसानों को यह बात समझ में आ गई कि यह सारा खेल सियासत का है। और 18 महीनों में सरकार स्थगित क़ानून को फिर से वहीं पर लाकर खड़ा कर देगी, जिस क़ानून के विरोध में आज हम खड़े हैं।

किसानों की बातों में हद तक सच्चाई लगती है। दरअसल जब 18 महीनों के सरकारी मियादी समय पर ग़ौर किया जाए तो साफ पता चल जाता है कि सरकार ने 18 महीनों का शगूफ़ा क्यों छोड़ा?

अब हम सरकार के 18 महीनों का पोस्टमार्टम करते हैं तो पता चलता है कि लगभग चार महीने बाद मई में पांच राज्यों के चुनाव होने हैं। इनमें पश्चिम बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी विधानसभा के चुनाव होने हैं।

12वां महीना यानी फ़रवरी-मार्च,2022 में देश का सबसे बड़ा विधानसभा वाला राज्य यूपी का चुनाव होना है। इस प्रदेश के साथ-साथ उत्तराखंड का भी इसी दौर में चुनाव संपन्न होना है। पंजाब, गोवा और मणिपुर के भी चुनाव इसी मियाद में होंगे।

और उस 18 महीने की मियाद से तीन महीने बाद ही नवंम्बर-दिसंबर, 2022 में गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव संपन्न होने हैं। और इसके चार महीनों के बाद यानी मार्च, 2023 में मेघालय, नागालैंड और त्रिपुरा जैसे तीन राज्यों में चुनाव होने हैं। इस चुनाव के दो महीने बाद ही यानी मई, 2023 में कर्नाटक के चुनाव होने हैं। और इसी साल दिसंबर, 2023 में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और राजस्थान की जनता को वोट डालने के लिए लंबी कतार में लगने का मौसम आने वाला है।

ज़ाहिर सी बात है कि सरकार के सामने इन 18 महीनों की मियाद में लगभग 12 विधानसभाओं के चुनाव होने हैं। ज़ाहिर सी बात है कि सरकार फिर 18 महीनों को कमिटी और मीटिंग-शिटिंग के नाम पर छह आठ महीने और भी मोहलत ले सकती है। तब तक किसानों का ग़ुस्सा भी ठंडा हो जाएगा और चुनाव भी निकल जाएंगे। फिर देखा जाएगा जो होना है-यही सरकार की मंशा और मास्टर स्ट्रोक था शायद! लेकिन यह मास्टर स्ट्रोक ख़ाली कारतूस ही साबित हुआ- कुछ ऐसा ही आभास होता है।