जातीय जनगणना इतनी अहम क्यों, एक यक्ष प्रश्न ?

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राजीव रंजन नाग

यह तो तय है कि केंद्र सरकार ने अपना इरादा पक्का कर लिया है कि किसी भी हालत में जातीय जनगणना नहीं कराई जाएगी। इसका जीता-जागता सबूत है कि 20 जुलाई, 2021 को लोकसभा में केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने एक सवाल के जवाब में साफ कर दिया था कि केंद्र सरकार अनुसूचित जाति और जनजाति के अलावा और किसी जाति की गिनती नही करने जा रही है।

भारत जैसे देश में जातीय प्रथा अपनी खास पहचान रखती है। जातियता का बोध मनुष्य के मन की सबसे बड़ी जटिलता भी है और विशेषता भी है। हम सब धर्म के बाद जाति के तौर पर ही अपनी पहचान बनाने में कामयाब रहते हैं। देश के किसी भी सूबे या भू-भाग में आप चले जाएं, आपके अपने रसूख की पहचान को जातियता के धागे में पिरोकर ही आपकी उपलब्धि की माला आपके गले में डाली जाती है। अगर आप दलित परिवार से हैं, तो आपको किसी भी हालत में सवर्ण अपना राजनीतिक रहनुमा कतई नहीं मानने को तैयार होगा। आपको अपना रहनुमा आपका दलित समाज ही मानेगा। इसलिए आप जिस धर्म और जाति से हैं, उनकी सुध लेना आपका जातिगत और सामाजिक दायित्व भी है। यही आपका धर्म भी है। जाहिर है इस पर सबको गौर करना चाहिए। और राजनीति का फलक जितना भी व्यापक हो, आप शोहरत की जितनी भी ऊंचाइयों को छू लें, शोहतरत के सातों आसमान पर क्यों न विचरन कर लें लेकिन जब आप जमीं पर उतररते हैं तो आपको अपने ही समाज से पहचाना जाता है। यही हकीकत है। यही कड़वा सच है।

देश में जातीय जनगणना पर जोरदार बहस छिड़ी हुई है। एनडीए गठबंधन के कुछ घटक दल भी जातीय आधारित जनगणना को अमली जामा पहनाने की जुगत और जुगाड़ में लगे दिख रहे हैं। लेकिन एनडीए सरकार के मुखिया और नरेंद्र मोदी जातीय जनगणना के पक्षधर नहीं दिख रहे हैं। ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि केंद्र सरकार को जातीय जनगणना कराने से इसलिए डर लग रहा है कि अगर एक बार कोई चीज दर्ज हो गई तो उसे बदला नहीं जा सकता है। क्योंकि आज देश में किसी भी जाति का कोई अधिकारिक रिकार्ड नहीं है। राजनीतिक दल भी अपनी सुविधा और अपनी सियासत के मुताबिक उन जातियों की जनसंख्या को स्वीकार कर लेते हैं। जैसे उदाहरण के तौर पर आप मुसलमानों को ही ले लें। इनकी संख्या काफी है। लेकिन इन्हें जनसंख्या के अनुपात में राजनीतिक भागीदारी न देनी पड़े, इसलिए इनकी संख्या को अबततक कम करके ही सियासी दलों में आंकने की परम्परा चल पड़ी है। दूसरी तरफ सवर्णों की संख्या राजनीतिक तौर पर ज्यादा बताई जाती है। सरकार को डर है कि अगर सही-सही आंकड़ा दर्ज हो गया तो फिर देश की सियासत की सूरत ही बदल जाएगी। इसलिए हर सरकार जातीय जनगणना कराने से अब तक बचती रही है।

लेकिन ओबीसी की राजनीति करने वाले कुछ राजनीतिक दल हैं, जो चाहते हैं कि किसी भी हालत में जातीय जनगणना होनी चाहिए। इसमें बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी हैं। और यही वजह है कि नीतीश कुमार के जातीय जनगणना में कूद पड़ने के बाद उनके धुर विरोधी आरजेडी और दूसरे दल भी उनकी आवाज में आवाज मिलाने लगे हैं। और यह आवाज देश के कानों में गुंजने लगी है। जातीय जनगणना की मांगें जोर पकड़ती जा रही हैं। लेकिन सरकार के कानों में अभी तक जूं नहीं रेंग रही है। सरकार अपना तर्क दे रही है कि कई सूबों में कोई जाति विशेष ओबीसी है तो दूसरे राज्यों में सवर्ण। और इसी का हवाला देकर केंद्र सरकार जातीय जनगणना कराने से बचना चाहती है। लेकिन यह तर्क अधुरा है। दरअसल सरकार चाहे तो एक नोटिफिकेशन जारी करके यह कह सकती है कि जिस राज्य में जिन ओबीसी या जाति को जो स्थिति है, वही स्थिति बनी रहेगी। उदाहरण के तौर पर अगर उत्तर प्रदेश में बनिया सवर्ण है तो उन्हें वहां सवर्ण के तौर पर ही देखा जाएगा। और अगर बिहार में बनिया ओबीसी है तो उन्हें ओबीसी के तौर पर ही देखा जाएगा। इसमें कहीं किसी प्रकार की कठिनाई की गुंजाइश ही नहीं है।

यह तो तय है कि केंद्र सरकार ने अपना इरादा पक्का कर लिया है कि किसी भी हालत में जातीय जनगणना नहीं कराई जाएगी। इसका जीता-जागता सबूत है कि 20 जुलाई, 2021 को लोकसभा में केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने एक सवाल के जवाब में साफ कर दिया था कि केंद्र सरकार अनुसूचित जाति और जनजाति के अलावा और किसी जाति की गिनती नही करने जा रही है।

बहरहाल जातीय जनगणना की जरूरत इस लिए भी है कि भारत में पिछले 90 सालों से जातीय जनगणना नहीं हुई है। यानी 1931 के बाद से दॆश में जातीय जनगणना बंद है। 1941 में जातीय जनगणना हुई लेकिन उसकी रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई। इसलिए उसका कोई मतलब नहीं बनता है। यही वजह है कि आज भी लोग पिछले 90 साल की जातीय जनगणना को आधार मानकर अपनी और दूसरों की जातीय गणना को अपने हिसाब से फिट बैठाने की कोशिश करते आ रहे हैं। इतना तो तय है कि आज अगर 90 सालों के बाद जातीय जनगणना कराई जाति है तो कई जातियों की गणना नई जनगणना में या तो उछाल मारेंगे या नीचे नजर आएंगे। इसी वजह से सरकार डर भी रही है। और बच भी रही है। क्योंकि सरकार के पास कुछ न कुछ वास्तविक गणना है, उसे मालूम है कि किसकी जनसंख्या कितनी है।

मालूम हो कि हर दस साल में जनगणना होती है। लेकिन इसमें सिर्फ आदिवासी और दलित की ही गणना की जाती है। बाकी किसी भी जाति या ओबीसी की जनगणना नहीं होती है। 1951 में भी जनगणना हुई लेकिन उस समय भी सिर्फ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की जनगणना हुई। इसलिए आप कह सकते हैं कि आदिवासी और दलित के अलावा किसी भी जाति की संख्या अधिकृत नहीं है। लोग अपने-अपने नजरिए से अपनी जनसंख्या बताते हैं। और राजनीतिक दल भी अपने नजरिए से उसे मानते या नकारते रहते हैं।

दरअसल 1990 में वी पी सिंह सरकार ने मंडल आयोग के जरिए पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी उम्मीदवारों के लिए नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान कर दिया था। इस प्रावधान ने भारतीय राजनीति की सूरत ही बदलकर रख दी। मंडल आयोग ने ओबीसी की आबादी को उस समय 52 प्रतिशत माना था। लेकिन तब से लेकर अब तक सरकार और राजनीतिक दल अपने-अपने हिसाब से ओबीसी की जनसंख्या को भी मानकर राजनीतिक गोटी फिट करते आ रहे हैं।

दरअसल जातीय जनगणना के मुताबिक देश में दलित 15 प्रतिशत हैं। और आदिवासी ठीक इसके आधा यानी साढ़े सात प्रतिशत (7.5 प्रतिशत)। यानी आप कुल मिलाकर कह सकते हैं कि देश की सौ फीसदी आबादी में से अगर सरकार और देश को किसी आबादी की सही और सटीक जानकारी मालूम है तो वह 22.5 फीसदी आबादी ही है। यानी दलित और आदिवासी। 2011 तक जातीय जनगणना सिर्फ दलित और आदिवासी की ही हुई है। और 2021 की जनगणना में भी सिर्फ आदिवासी और दलित की ही होने जा रही है। यानी आप कह सकते हैं कि 2021 में भी गैर दलित और गैर आदिवासी की जनगणना नहीं होने जा रही है। लेकिन उम्मीद है कि इसबार की जनगणना में शोर-शराबा मचने के बाद अगली सरकार जब 1924 में आएगी तो वह झख मारकर ही सही 1931 में जातीय आधारित जनगणना की मांग को स्वीकार करते हुए उसे अमली जामा पहनाएंगी। तब जातीय जनगणना के सौ साल भी पूरे हो जाएंगे। और इस उपलक्ष्य में सरकार की बाध्यता भी जातीय जनगणता के प्रति संभव है। लिहाजा उम्मीद की जानी चाहिए कि 2031 में जातीय जनगणना अमली जामा पहनेगा। और तभी पता चल पाएगा कि सरकार की नीति और लोकक्याणकारी योजनाओं का सही-सही लाभ सभी जाति तक पहुंच पा रहा है कि नहीं। जैसा कि दलित की जनसंख्या 15 फीसदी है और आदिवासी की जनसंख्या 7.5 फीसदी। तो उन्हें उन्हीं अनुपात में स्कूल, कॉलेज और सरकारी नौकरियों में आरक्षण मिल रहा है। लेकिन ओबीसी की संख्या को लेकर कोई पक्की चीज दर्ज नहीं है। और सुप्रीम कोर्ट ने भी तय कर दिया है कि 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता है। अब 50 फीसदी आरक्षण में से 22.5 फीसदी आरक्षण निकाल दिया जाए तो 27.5 फीसदी आरक्षण बचता है। और इसी बचे हुए कोटे को ओबीसी के खाते में डाल दिया गया है। अब अगर किसी को आरक्षण देना हो तो कैसे आरक्षण दिया जाएगा, यह एक जटिल ही नहीं यक्ष प्रश्न भी है। और इस प्रश्न का जवाब न किसी राजनीतिक दल के पास है और न ही किसी सरकार के पास।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)