अनुचिंतन: सड़क पर किसान!

525


एस एन विनोद

धिक्कार कि आज अन्नदाता किसान सड़क पर हैं। उन्हें गद्दार कहा जा रहा है। पत्थरबाज़ कहा जा रहा है। देशद्रोही कहा जा रहा है। आतंकवादी कहा जा रहा है। देश के इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। देश के शौेर्य के प्रतीक सिख ़कौम को गद्दार निरुपित करने का दुस्साहस किया गया है। देश के लिए भगत सिंह पैदा करने वाली ज़मीन के ज़ांबाज़ों को गद्दार कहने का अपराध कैसे किया गया? ऐसी स्थिति कैसे पैदा हुई? कौन ज़िम्मेदार है, इस बिगड़ते हालात का?

बड़ी अजीब स्थिति है। समझ में नहीं आता कि सत्तापक्ष ने संपूर्ण देश को, विशेषकर किसान ़कौम को मूर्ख कैसे समझ लिया? वैसे एक पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू देश की नब्बे प्रतिशत जनता को मूर्ख निरुपित कर चुके हैं। लेकिन वह संदर्भ दूसरा था। आज मामला अन्नदाता किसान और हठधर्मी केंद्र सरकार का है। केंद्र सरकार तीन नए कृषि ़कानून बनाती है। देश का किसान ़कानून को किसानों के हित के ़िखला़फ बता रहा है। किसानों की मांग है कि सरकार ़कानूनों को रद्द कर दे। सरकार संशोधन को तैयार है, किंतु रद्द करने को नहीं। दोनों पक्षों के बीच लगभग दर्जन बार बातचीत हुई, किंतु बेनतीजा। कहा गया कि दोनों पक्ष अपने-अपने हठ पर ़कायम हैं। ऐसे में समाधान संभव ही नहीं। हमारा मानना है कि चूंकि किसानों को कथित रूप से अपने हित में बनाए ़कानूनों पर विश्वास नहीं, सरकार को इन्हें रद्द कर देना चाहिए। लेकिन लगता है कि केंद्र सरकार ने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया है। और यही कारण है कि वह न झुकते हुए किसान आंदोलन को ़खत्म करवा देने पर आमदा है। इसके लिए कई तरह के हठकंधे सरकार अपना रही है। फूट डालो और राज करो कि पुरानी नीति को अपनाते हुए सरकार ने किसान नेताओं को तोड़ना शुरू किया। आंशिक रूप से सरकार इसमें सफल भी रही। भारतीय किसान यूनियन (भानू) और राष्ट्रीय किसान मज़दूर संगठन ने ़खुद को आंदोलन से अलग कर लिया। लेकिन इससे आंदोलन पर कोई प्रतिकुल प्रभाव नहीं पड़ा। शायद यही कारण रहा कि कुछ नेता जो आंदोलन छोड़कर चले गए थे, पुन: आंदोलन में सहभागी बन रहे हैं। सबसे आपत्तिजनक सरकारी ़कदम पुलिसिया कार्रवाई के रूप में सामने आई। 26 जनवरी गणतंत्र दिवस के दिन लाल ़िकले पर घटित शर्मनाक वारदात निश्चय ही सत्तापक्ष की कारगुजारी थी। वे स्वीकार नहीं करेंगे, किंतु आमलोग इस पर एक मत हैं कि आंदोलन को बदनाम करने के लिए लाल ़िकले का ‘मंचन’ हुआ। अब चूंकि देश के सामने सरकारी मंशा नग्न हो चुकी है, सरकार ने अपना रु़ख नरम कर लिया है। उन्हें सदबुद्धि आई और उन्होंने धरना स्थल से पुलिस बल को धीरे-धीरे हटाना शुरू कर दिया है। इसका सकारात्मक प्रभाव किसान नेताओं पर भी पड़ेगा।

सर्वाधिक दुखद पहलू मीडिया की भूमिका है। स्पष्ट कारणों से अधिकांश मीडिया ने बिल्कुल नग्न होकर किसानों के ़िखला़फ सत्ता का साथ दिया। यह शर्मनाक है। मीडिया द्वारा प्रचारित किया जा रहा है कि आंदोलनरत लोग किसान नहीं बल्कि पत्थरबाज़ हैं। गुंडे हैं। आतंकवादी हैं। ़खालिस्तानी हैं। यह अपने आप में संपूर्ण मीडिया बिरादरी के लिए चुल्लू भर पानी में डूब मरने सरीखा मामला है। निष्पक्षतापूर्वक तथ्यों को प्रस्तुत करने के बजाय मीडिया ने सत्ता का साथ देते हुए किसान आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश की। ऐसा नहीं होना चाहिए। मीडिया एक धर्म है। इसकी अपनी सीमाएं हैं। मीडिया को कर्तव्य-निर्वाह के दौरान निष्पक्षता बरतने की सौगंध को याद रखना चाहिए। खेद है कि मीडिया इस मु़काम पर विफल रहा। कोई आश्चर्य नहीं कि आज मीडिया को असहज आपत्तिजनक अलंकरणों से नवाज़ा जा रहा है। मीडिया-नेतृत्व सावधान हो जाए। अंत में एक सलाह पुलिस-प्रशासन को। ़कानून-व्यवस्था रखने की ज़िम्मेदारी पुलिस-प्रशासन पर है। वह निष्पक्ष रहे।  प्रस्तावित ़कदम की किसान नेताओं की पासपोर्ट ज़ब्त कर लिए जाए, उनके विदेश जाने पर रोक लगा दी जाए, घोर आपत्तिजनक हैं। क्या किसान माल्या और मेहुल चौकसी सरीखे बड़े आर्थिक अपराधी हैं? क्या ये देशद्रोही हैं? पुलिस-प्रशासन ऐसा कोई ़कदम न उठाए, जिससे देश में उसकी ‘नीयत’ को लेकर संदेह पैदा हो जाए। आंदोलन से निपटने की ज़िम्मेदारी उनकी नहीं, सरकार पर इसे छोड़ देें। क्योंकि यह तय है और इतिहास साक्षी है कि किसान आंदोलन कभी विफल नहीं रहे। देश में नील पैदा करने वालों का आंदोलन, पाबना विद्रोह, तेभागा आंदोलन, चंपारण सत्याग्रह और बारडोली आंदोलन जैसे सफल किसान आंदोलन इतिहास में दर्ज हैं। ध्यान रहे इन आंदोलनों का नेतृत्व महात्मा गांधी और सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया था। आलोच्य किसान आंदोलन का नेतृत्व स्वयं किसान कर रहे हैं। यह देशहित के ़िखला़फ हो ही नहीं सकता। बेहतर है कि भारत सरकार हठधर्मिता का त्यागकर किसानों की मांग स्वीकार कर ले।