ए आर आज़ाद
कुरआन में जकात के संदर्भ में आए दो वाकया को यहां आपके सामने पेश किया जा रहा है जिससे आप जकात की अहमियत और उसकी उपयोगिता को आसानी से समझ सकें। करआन के छठे पारे और 141 आयत में कहा गया है,-‘‘ जब ये चीजें फलें तो उसका फल खाओ और उन चीजों को काटने के दिन खुदा का हक यानी जकात दे दो। और खबरदार फिजूल खर्ची न करो क्योंकि वह यानी खुदा फिजूल खर्चे से हर्गिज उल्फत नहीं रखता।’’
ठीक इसी तरह से कुरआन में एक जगह और जकात की अहमियत को आसानी से समझाने की कोशिश की गई है। कुरआन के पारा दो की आयत 277 में कहा गया है,- ‘‘ नि:संदेह जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए और नमाज कायम की और जकात दी, उनके लिए उनका बदला उनके रब के पास है और उन्हें न कोई खौफ हो और न वे शोकाकुल होंगे।’’
कुरआन में नमाज के साथ जकात के जिक्र का एक उदाहरण आपके सामने है। जकात इस्लाम का एक अहम स्तंभ है। इसकी निशानी और इसकी अहमियत का एक नजारा हदीस में भी देखने को आपको मिलेगा।
हदीस में साफ है कि किसे जकात देना है। किस पर जकात फर्ज है और किस पर जकात फर्ज नहीं है। हदीस के मुताबिक पैग्मबर ए इस्लाम ने साफ कर दिया कि जिसके पास 52 तोला 6 मासा से कम चांदी है, उस पर जकात फर्ज नहीं है। यानी वही जकात दे सकते हैं जिनके पास 52 तोला और 6 मासा या इससे ज्यादा चांदी है। जकात उसपर फर्ज है जिसके पास पांच ऊंट या उससे ज्यादा है। यानी इसका सीधा मतलब है कि जिसके पास एक से लेकर चार ऊंट हैं, उसपर जकात फर्ज नहीं है। इसी तरह अनाज को अगर जकात का मापदंड माने तो जिसके पास 33 मन गल्ला है, उसपर जकात फर्ज नहीं है। यानी जकात उसी पर फर्ज है जिससे पास कम से कम 34 मन गल्ला है। यह सब कुछ सही बुखारी के हदीस नंबर 1447 में भी उल्लेखित है।
एक और हदीस यानी सही बुखारी हदीस के 7556 में कहा गया है कि नबी करीम स.अ.व. ने फरमाया है कि तुम्हें चार कामों का हुक्म देता हूं। और चार कामों से रोकता हूं। मैं तुम्हें ईमान बिल्लाह का हुक्म देता हूं। तुम्हें मालूम है कि ईमान बिल्लाह क्या है? उसकी गवाही देना है कि अल्लाह के सिवाय कोई पूज्य नहीं। और नमाज कायम करना और जकात देने और गनीमत में पांचवा हिस्सा देने का हुक्म देता हूं।
हदीस और कुरआन की रौशनी में साफ हो गया कि जकात कौन देता है और जकात का मकसद क्या है? तो सबसे पहले फिर से एक बार समझने की कोशिश करते हैं कि जकात का मकसद क्या है? दरअसल जकात का मकसद इस्लाम में बड़ा ही पवित्र है। जकात के जरिए गरीबों को भी इस लायक बनाना है, जिससे वो भी आगे चलकर जकात देने वाला बन सके। लेकिन बदकिस्मती देखिए कि जकात का मतलब आज के मुसलमान गरीबों को गरीब बनाए रखना ही इसका मकसद समझने लग गए हैं। नतीजतन वे गरीबों की इतनी ही मदद करते हैं कि जिससे वह गरीब बना रहे और किसी तरह अपनी जिंदगी को जीता रहे। जबकि कुरआन और हदीस के नजरिए में जकात का साफ मतलब है कि जरूरतमंदों की मदद करके उन्हें भी अपनी तरह जकात देने वाला बनाना है। अल्लाह हम सबों को इसी तरह से जकात अदा करने की तौफीक अता फरमाए। और हम जिन्हें जकात दें अल्लाह के फजलों करम से वे भी बहुत जल्द जकात देने वालों में शामिल हो जाएं। यानी उनकी गरीबी दूर हो जाए। आमीन।