जब आएगा ख़्वाजा का बुलावा

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अजमेर शरीफ़ दरगाह

 

ए आर आज़ाद

लॉक डाउन की वजह से इसबार बहुत सारे लोगों को जन्नती दरवाज़ा का दीदार करने को मौक़ा नहीं मिलेगा। लेकिन घबराइए नहीं हम आपको जन्नती दरवाज़े का इस वीडियो में दीदार करवा रहे हैं। और ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ की दरगाह के एक-एक मंज़र को आपकी आखों के सामने ला रहे हैं ताकि आप ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ के दरगाहों की घर बैठे ज़ियारत कर लें और अपनी मुरादों को घर बैठे ही पा लें।

आपको बता दें कि अजमेर शरीफ दरगाह में मुल्क की सलामती और जायरीन की दिली मुरादें पूरी होने के लिए हर शाम दुआएं होती हैं। यह दुआ हाजिर और गैरहाजिर जो भी ज़ायरीन होते हैं उन सबकी दिली मुरादों के पूरी होने के लिए दुआएं की जाती है। इसके साथ ही साथ मुल्क की सलामती के लिए दुआएं होती हैं। इसे हम रौशनी की दुआ के नाम से भी जानते हैं। हम आपको बता दें कि रौशनी की दुआ तय है। और हर शाम एक ही दुआ पढ़ी जाती है। यह दुआ फारसी में लिखी हुई है। एक ज़माने से रौशनी की दुआ पढ़ी जा रही है। इस रौशनी की दुआ का अंतिम बंद है-

इलाहीताबुवद खुर्शीद माही, चिरागे चिश्तिया रां रोशनाई इसका मतलब है कि परवरदिगार जब तक चांद सूरज में रोशनी बाकी है, चिश्तिया सिलसिला के चिराग को रोशन रखियो।
पूरे साल भर यह दुआ खादिम आस्ताना शरीफ में पढ़ते हैं, लेकिन गरीब नवाज के उर्स के मौके पर बेगमी दालान से इस दुआ को पढ़ने का रिवाज़ है। रिवायत के मुताबिक़ उर्स का झंडा चढ़ने वाले दिन से रजब की 5 तारीख़ तक ही यह दुआ बेगमी दालान में पढ़ी जाती है।

दरगाह के नियमों एवं परंपराओं के मुताबिक़ मग़रिब की अजान से 20 मिनट पहले दरगाह में रोशनी की दुआ शुरू होने का इशारा डंका पीटकर दिया जाता है। जैसे ही यह डंका बजता है, लोगबाग जो जहां मौजूद हैं, वहीं फौरन अदब व एहतराम के दायरे में बंधकर वहीं खड़े हो जाते हैं। और दुआ के लिए हाथ उठा लेते हैं। इस वक़्त सबकी निगाहें ग़रीब नवाज़ की बारगाह की ओर होती है।

इस दौरान मोमबत्तियों का भी अपना एक रिवायत है। इस रिवायत के मुताबिक़ डंका बजने के साथ ही लंगर खाना से मोमबत्तियां लाई जाती हैं। और इन मोमबत्तियों को बेगमी दालान में फानूसों में रखा जाता है। और फिर इस मरहले को अंजाम देने के ख़ादिम हज़रात रोशनी की दुआ पढ़ते हैं।

अजमेर शरीफ़ दरगाह ख़्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्लाह अलैह की इबादत, इंसानियत, यक़ीन और ग़रीबों के दुखों को दूर करने का केंद्र रहा है। अल्लाह ने उन्हें ऐसी-ऐसी चीज़ों से नवाज़ा है, जिन सभी का ज़िक्र उनके नाम के साथ ही पूरा हो जाता है। यही वजह है कि उन्हें ग़रीब नवाज़ का भी लक़ब दिया गया है। कहा जाता है कि इस मज़ार पर क़दम रखते ही लोगों की मुरादें और तमन्नाएं पूरी होने के लिए मचल उठती हैं। इस रूहानी मरकज़ पर ख़ुदा की यह रहमत है कि यहां से कोई लोग ख़ाली हाथ नहीं जाता है।

आज अजमेर अगर जाना जाता है तो ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ के नाम से ही जाना जाता है। उन्होंने भारत का जब रुख़ किया तो अजमेर को अपना इबादत का आशियाना बना लिया, फिर इसे ग़रीबों की भलाई और लोगों को ख़ुदा से जोड़ने का एक सिलसिला शुरू किया। यह सिलसिला ईश्वरीय गान से होते हुए क़व्वाली और समाख़्वानी तक चलता रहा। इस बीच ग़रीब नवाज़ का टकराव राजा और बादशाह से लेकर जादूगर तक से हुआ। उनकी इबादत से मिली ताक़त के सामने न कोई जादूगर टिक सका और न ही किसी बादशाह और राजाओं की ही चल सकी। ग़रीब नवाज़ ने बादशाहों और हुक्मरानों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया।

ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ बेशुमार रुहानी ताक़तों के बादशाह और मोकम्मल ईमान के शहंशाह थे। यही वजह थी कि उनकी शागिर्रदी पाने वालों में अपने ज़माने के क़द्दावर इल्मदां और ख़ुदा के बंदे थे। उनके ख़ास शागिर्दों में क़ुतुब्बुद्दीन बख़्तियार काकी रहमतुल्लाह अलैह का नाम अव्वल है। बाबा फ़रीद और निज़ामुद्दीन औलिया उनके बेहतर शागिर्द थे। अमिर खुसरों, नसीरुद्दीन चिराग़ देहलवी के नाम भी उनके बाइज़्ज़त शागिर्दों में शुमार होते हैं। कहा जाता है कि ग़रीब नवाज़ के तक़रीबन एक हज़ार से ज़्यादा ख़लीफ़ा थे। मुरीदों की तादाद तो लाखों में बताई जाती है।

ग़रीब नवाज़ की करामात और उनकी इबादत से ऊपजी कामयाबी और बेहतरीन ज़र्रानवाज़ी पर कई फ़िल्में भी बन चुकी हैं। जिनमें दो फिल्मों का जिक्र लाजमी है। मेरे ग़रीब नवाज़ और सुल्तान ए हिंद के नाम से बनी फिल्मों के अलावा लाखों डोक्यूमेंट्री बनाए जा चुके हैं।

दरअसल अजमेर शरीफ़ पहुंचते ही एक अजब तरह की रूहानियत आपके दिलों को गुलज़ार कर देगी। और सूकं का एक ऐसा एहसास जगेगा जिससे दिल बाग़-बाग़  हो जाएगा और इसी गुलज़ार दिल से आपके क़दम ग़रीब नवाज़ की दरगाह पर माथे टेकने के सबब बनकर इबादत के रंग बिखेरने लगेंगे।

अजमेर की सरज़मीं पर क़दम पड़ते ही आपके धर्म, कर्म और मर्म आड़े आना छोड़ देंगे। आप भूल जाएंगे कि आप किस मसलक के हैं और आपका रंग क्या और आपका क़द क्या है। यहां तो देश का बादशाह और हुक़ूमरां भी बड़े अदब के साथ सालाना उर्स के मौक़े पर अपनी अक़ीदा की गुलपोशी करते दिख जाते हैं। देश ही नहीं विदेशों से भी अक़ीदत और अक़ीदा के नज़राने गुल व चादर की शक्ल में पेश करने के लिए कई बादशाह और पीएम अपने नुमाइंदों को भेजकर अपने और अपने मुल्क के लिए ख़ैर की दुआएं मांगते हैं।

ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ के उर्स की शुरुआत रजब के चांद देखने के साथ ही पारंपारिक तौर पर होती है। चांद के दिखने के साथ बुलंद दरवाज़े पर उर्स का झंडा फहराकर उर्स का आग़ाज़ हो हो जाता है। यानी ग़रीब नवाज़ का उर्स मुबारक एक रजब से छह रजब तक मनाया जाता है।

दरगाह तक पहुंचने का रास्ता बड़ा ख़ुशनुमा है। दरगाह का ख़ास दरवाज़ा निज़ाम गेट के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि इस गेट को 1911 में हैदराबाद के निज़ाम और नवाब मीर उस्मान अली ख़ान ने बनवाया था। निज़ाम गेट के बाद शाहजहानी दरवाज़ा है। इसके बाद बुलंद दरवाज़ा है। बुलंद दरवाज़ा तक़रीबन 85 फीट ऊंचा है। शाहजहानी गेट और बुलंद दरवाज़े के बीच ठीक दाईं तरफ़ अकबरी मस्जिद है। इतिहास बताता है कि इस मस्जिद को बादशाह अकबर ने बनाई थी। इस मज़ार पर ज़ियारत करने वाले लोगों के लिए सबसे आकर्षण का केंद्र दो देग़ है। यह दोनों देग़ बुलंद दरवाज़े के दोनों तरफ रखे हुए हैं। कहा जाता है कि बड़ी देग़ बादशाह अकबर ने तोहफ़े में दी थी। और छोटी देग़ बादशाह जहांगीर की देन है। आपको जानकर हैरत होगी कि बड़ी देग़ में तक़रीबन 32 सौ किलो तक चावल बनाया जा सकता है। इसकी कैपिसिटी यक़ीनन तौर पर 80 मन की है। छोटी देग़ में लगभग 16 सौ किलो चावल बन सकता है। इसकी कैपिसिटी तक़रीबन बड़ी देग़ की आधी यानी 40 मन की है।

इस देग़ को लेकर कई तरह की मान्यताएं किंवदंतियां बनी हुई हैं। कहा जाता है कि इस देग़ में ग़रीबों के लिए बनने वाले भोजन में पैसे या सामान डालने से इंसान फलता और फूलता है। शायद यही वजह है कि ज़ायरीन हर देग़ के नज़ारे को अपनी आंखों में क़ैद करते हुए उसमें अपनी हैसियत से कुछ न कुछ नज़राने के रूप में डालने की रवायत को पूरा करते दिखते हैं।

दरगाह के बाहर निकलते ही आपके लिए बाज़ार सजे होते हैं। यहां के बाज़ार कई नामों से जाने जाते हैं लेकिन सब के सब आपको मुग़लकानीन वक़्त से बांधते हुए नज़र आते हैं। मुग़लकालीन दौर की याद ताज़ा करते हुए आपसे रूबरू होते हैं। ऐसे ही बाज़ारों में चूड़ी बाज़ार, दरगाह बाज़ार, मदार गेट बाज़ार, डिग्गी बाज़ार जैसे नाम आपको अपनी तरफ़ खींचते हुए नज़र आते हैं। और आप भी उस कशिश में बंधते चले जाते हैं।

ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ की वफ़ात की भी अपनी रूहानी दास्तान है। कहा जाता है कि एक शब ख़्वाजा हर रात की तरह इबादत के लिए अपने कमरे में गए। एक के बाद एक रात बीतती चली गईं लेकिन वे बाहर नहीं निकले। इस तरह पांच दिन जब गुज़र गए तो छठे दिन जब दरवाज़ा खोला गया, तबतक ग़रीब नवाज़ दुनिया को अलविदा कह चुके थे। यह पल 633 हिजरी का था। ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ को अक़ीदतमंदों ने उसी कमरे में सुपुर्दे ख़ाक़ कर दिया। और इस तरह से पहली रजब से छह रजब तक उनके उर्स मनाने की रवायत का चलन चल पड़ा।

देश और दुनिया के लोग उनके उर्स में शामिल होने की तमन्ना रखते हैं। लेकिन कहा जाता है कि अजमेर दरगाह पर उसी के क़दम पड़ते हैं, जिन्हें ख़्वाजा बुलाते हैं। और जिन्हें ख़्वाजा बुलाते हैं वे बड़े ख़ुशनसीब होते हैं। क्योंकि हर कोई चाहकर भी वहां नहीं जा पाता, जब तक पहुंचने की इजाज़त ख़्वाजा से नहीं मिलती है। इस रूहानी मरकज़ का दीदार का शौक़ आप भी अपने मन में जलाइए। हो सकता है ख़ुदा आपको भी उस चरांगा में शामिल होने का मौक़ा दे दे- जिसमें दुआ की शक़्ल में ये नग़मा पढ़ा जाता है-इलाहीताबुवद खुर्शीद माही, चिरागे चिश्तिया रां रोशनाई