एस एन विनोद
क़रीब एक सौ साल पहले वैचारिक क्रांति के अग्रदूत गोपाल कृष्ण गोखले ने जब कहा था कि What Bengal thinks Today, India Thinks Tomorrow। तब उन्होंने भी नहीं सोचा होगा कि उनके शब्द कभी भारतवर्ष की राजनीति में नीति-नियामक बन जाएंगे। तब भारत ़गुलाम था। आज भारत आज़ाद है। विडंबना के रूप में ही सही गोखले के शब्द आज भी जीवित हैं। विभाजन के पश्चात आज़ाद भारत में पश्चिमी बंगाल की राजनीति पूरे देश की राजनीति को प्रभावित करती रही है। आज़ादी के पश्चात जहां गांधी-नेहरू की कांग्रेस ने वर्षों राज्य पर शासन किया वहीं वाम दलों ने भी कांग्रेस को अपदस्थ कर लगभग तीन दशकों तक शासन किया। ऐसा लगता था कि पश्चिम बंगाल पर वामपंथियों का स्थाई क़ब्ज़ा हो चुका है। ज्योति बसु जैसे लोकप्रिय नेता वामपंथी सरकार में राज्य के मुख्यमंत्री रहे। उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि ज्योति बसु को भारत का प्रधानमंत्री बनाने के पक्ष में लगभग आम राय बन चुकी थी। लेकिन ज्योति बसु के इंकार के बाद 1996 में एच डी देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बने। सत्ता की राजनीति का वह एक अकेला उदाहरण है- जब किसी ने प्रधानमंत्री की कुर्सी ठुकराई हो। बहरहाल समय ने अंगड़ाई ली। और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी नाम की एक ऐसी महिला शख़्िसयत का उदय हुआ, जिसने वामपंथी सरकार को उखाड़ फेंका। उल्लेखनीय है कि ममता बनर्जी ने कांग्रेस से नाराज़ हो, कांग्रेस का त्याग कर अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस का गठन किया था। आक्रामक युवा ममता की चुनौती के साथ राज्य का विशाल युवा वर्ग क़दमताल को तैयार हो गया। वामपंथियों की कथित तानाशाही से त्रस्त प्रदेश की जनता का भरपूर समर्थन ममता बनर्जी को प्राप्त हुआ। अविश्वसनीय घटित हुआ और वामपंथी सरकार को ममता ने उखाड़ फेंका। ममता बनर्जी एक अजेय नेता के रूप में स्थापित हुईं। लेकिन गोखले ने यूं ही ‘बंगाल-वंदना’ नहीं की थी।
समय ने करवट ली। लगभग दस वर्षों तक सत्ता-क़ाबिज़ ममता बनर्जी पर मां-मानुष और माटी को ठगने के आरोप लगने शुरू हो गए। परिवारवाद को बढ़ावा देने के आरोप लगे, भ्रष्टाचार के आरोप लगे। ज़ाहिर था कि लोगों के बीच असंतोष फैलता। ऐसा ही हुआ। इस बीच पूरे भारतवर्ष में अपनी अक्षुण्ण सत्ता क़ायम करने की अभिलाषा के साथ, केंद्र्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने पश्चिम बंगाल की राजनीति में दस्तक दी। विधानसभा के पिछले चुनाव (2016) में भाजपा ने अपने उम्मीदवार उतारे किंतु अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई। उसके सि़र्फ तीन उम्मीदवार जीत पाए। लेकिन तीन साल बाद हुए लोकसभा चुनाव में उसे अप्रत्याशित सफलता मिली। भाजपा ने लोकसभा की 18 सीटों पर क़ब्ज़ा किया। वोट प्रतिशत में भी आशातीत वृद्धि हुई। अपने एक महामंत्री कैलाश विजयवर्गीय को बंगाल प्रभारी बनाने की उसकी नीति सफल रही। कैलाश विजयवर्गीय की सांगठनिक क्षमता जगजाहिर है। आम लोगों के बीच पैठ बनाने में माहिर कैलाश विजयवर्गीय ने पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी के लिए मज़बूत ज़मीन तैयार कर दी। नतीजतन आज तृणमूल कांग्रेस और ममता बनर्जी के लिए भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी चुनौती के रूप में खड़ी है। भाजपा नेतृत्व की माने तो इस वर्ष होने जा रहे विधानसभा चुनाव में ममता को पराजित कर पार्टी सरकार बनाने जा रही है। भविष्यवाणी तो नहीं की जा सकती है किंतु राजनीतिक विश्लेषक एकमत हैं कि इस बार ममता के लिए राह आसान नहीं है। भाजपा की बढ़ती लोकप्रियता का कारण ढ़ूंढ़ने में विफल ममता हताश दिखने लगी हैं। हताशा इतनी कि ममता अब ‘बाहरी और भीतरी’ के खेल में उलझ गईं। इसका राजनीतिक ख़मियाज़ा ममता को भुगतना ही पड़ेगा। ध्यान रहे, ‘बाहरी और भीतरी’ का पहला राजनीतिक खेल महाराष्ट्र में बाला साहब ठाकरे ने खेला था। मराठी अस्मिता का नारा बुलंद कर उन्होंने पहले गुजरात, राजस्थान और बाद में उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों के ख़िलाफ़ अभियान चलाया था। आरंभिक सफलता के बाद उन्हें विफलताओं से रूबरू होना पड़ा। नतीजतन उन्हें अपनी नीति बदलनी पड़ी। अन्य राज्यों के प्रति उदारता प्रदर्शित कर उन्होंने सभी का साथ लिया। इस पाश्र्व में ममता बनर्जी का ‘बाहरी-भीतरी’ खेल नादानी ही समझी जाएगी।
राज्य की राजनीति में असदुद्दीन ओवैसी नामक उस खिलाड़ी का प्रवेश हुआ है, जो दूसरे मोहम्मद अली जिन्ना के रूप में स्वयं की पहचान बनाना चाहता है। आंध्रप्रदेश में विशुद्ध सांप्रदायिक आधार पर राजनीति सफलता प्राप्त कर ओवैसी महत्वकांक्षी बन बैठे। उन्होंने अन्य राज्यों में पार्टी अकटकट का विस्तार किया। ममता की ही तरह आक्रामक ओवैसी को सफलताएं भी मिलीं। और तो और पिछले बिहार विधान सभा चुनाव में भी अपनी पार्टी के पांच लोगों को जिताया। पश्चिम बंगाल में ओवैसी का प्रवेश ममता बनर्जी की आशाओं पर पानी फेर सकता है। प्रदेश में लगभग 30 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता सौ से अधिक निर्वाचन क्षेत्रों को प्रभावित करते हैं। अब तक इस वर्ग का पूरा समर्थन ममता बनर्जी को मिलता आया है। ममता बनर्जी की जीत का एक बड़ा कारण मुस्लिम मतदाता रहे हैं। ओवैसी पश्चिम बंगाल में अपनी पार्टी को मैदान में उतारने की घोषणा कर चुके हैं। अब देखना दिलचस्प होगा कि मुस्लिम मतदाता क्या ममता बनर्जी का दामन छोड़ ओवैसी का हाथ थामेंगे। कांग्रेस-वामपंथी स्वयं ममता की टीएमसी ओवैसी को भाजपा की ‘बी टीम’ निरूपित कर रहे हैं। आरोप में कितना दम है, इसपर कोई निर्णायक टिप्पणी तो नहीं की जा सकती किंतु यह सच है कि महाराष्ट्र और बिहार के चुनाव में ओवैसी के उम्मीदवारों के कारण भाजपा को लाभ पहुंचे थे। अगर पश्चिम बंगाल में मुस्लिम मतदाताओं की कुछ प्रतिशत वोट भी ओवैसी अपने पक्ष में करने में सफल हो जाते हैं तो उसका लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिल जाए, इसमें दो राय नहीं। ममता बनर्जी के भीतर ओवैसी को लेकर जो बौखलाहट है, उसका कारण यही है।
पश्चिम बंगाल में चुनाव हमेशा रक्तरंजित होते रहे हैं। हमारी चिंता इस बात को लेकर है कि इसबार यह ़खूनी खेल अपने चरम पर है। अगर उपलब्ध आंकड़ों को सही माने तो भारतीय जनता पार्टी के सर्वाधिक कार्यकर्ताओं की हत्याएं हुई हैं। भाजपा के बड़े नेताओं की रैलियों पर हिंसक हमले हुए हैं। हत्याएं तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की भी हुई हैं किंतु इनकी संख्या कम है। लेकिन ़खून … ़खून होता है। जघन्य अपराध है यह। लोकतंत्र के माथे पर कलंक है यह। लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बाधित करना, वह भी हिंसा के माध्यम से, किसी भी लोकतंत्र को मान्य नहीं हो सकता। लोगों के अपने विचार होते हैं, अपनी पसंद होती है। विभिन्न दलों की घोषित नीतियों के आधार पर, उम्मीदवारों के व्यक्तिगत चरित्र के आधार पर मतदाता अपनी पसंद के प्रतिनिधि चुनते हैं। बहुमत प्राप्त दल अपना नेता निर्वाचित कर अपनी सरकार गठन करते हैं। संविधान के अंतर्गत, स्थापित मूल्यों को आधार बना, वे सत्ता संचालन करते हैं। इसमें जबरन बाधा का कोई स्थान नहीं। हमारी चिंता यह है कि चूंकि पूरे देश की निगाहें पश्चिम बंगाल की अंगड़ाई पर टिकी रहती हैं, हम चाहेंगे कि अंगड़ाई प्राकृतिक हो, जबरिया नहीं। और सबसे महत्वपूर्ण यह कि मतदाता रविंद्र्रनाथ टैगोर के स्वप्न ‘सोनार बंगाल’ को न भूलें। बंगाल अगर देश के लिए राजनीतिक मार्गदर्शक है तो उसे अनुकरणीय मार्गदर्शन का प्रणेता बनना ही पड़ेगा।