गाय, गोबर और गौमूत्र सराहा बना तो किसके लिए?  

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ए आर आज़ाद

कोरोना वायरस से ख़तरे के मद्देनज़र कई तरह के प्रयोग शुरु हो चुके हैं। इसी प्रयोग की कड़ी में अंधविश्वास कहें या प्राचीन परंपरा का नाम देकर इसे जस्टीफाई करें। लेकिन जिस प्रकार से गोबर, गौमूत्र और गौमूत्र और गौमूत्र स्नान को प्रमुखता प्रदान करने की क़वायद शुरू हो गई है, उससे साफ ज़ाहिर होता है कि विज्ञान के फलते-फुलते इस युग में अंधविश्वास ने अपना पांव पसार लिया है।

गाय की पूजनीयता से कोई नहीं इंकार कर सकता। लेकिन इसकी पूजनीयता की एक सीमा है। वह सीमा यह है कि गाय का दूध मां के दूध के बाद सर्वोत्तम और सुलभ है। गाय का दूध अमृत के सामान है। भारत क्या विश्व के हर मज़हबों के मानने वाले इस बात को भी बड़ी आसानी से मानते हैं कि गाय का दूध सर्वोत्त्म है। और यही आधार गाय को महिमामंडित भी करती रही है।

भारत में तो गाय को माता की संज्ञा तक दी गई है। माता की संज्ञा देने का एक कारण संभव है कि यह भी हो सकता है कि मां के दूध के बाद गाय का दूध ही सर्वोत्तम है। और जिस मांओं के स्तन किसी बीमारी के कारण सूख जाते हैं तो ऐसी मां के बच्चों के लिए गाय ही मां बन जाती है। यानी गाय के दूध उसके सहारे प्राचीन काल में बनते रहे हैं। आधुनिक काल में तो यह एक अर्ध सत्य बनकर रह गया है। क्योंकि आधुनिक काल में बच्चों के लिए दूध के इतने ब्रांड आ गए हैं कि लोगों को अब कोई कठिनाई भी नहीं रही है। लगभग पिछले चार दशक से बच्चों के लिए दूध बनाने वाली कई ब्रांडेड कंपनियां अपने अस्तित्व में हैं। फिर भी गाय की उपयोगिता और उसकी ज़रूररतों को नकारा नहीं जा सकता है। गाय आज भी उपयोगी है। लेकिन गाय का उपयोग दूध तक ही सीमित रहे तो यह समाज और देशकाल के लिए भी बेहतर परिस्थिति का सूचक माना जाएगा।