ममता के लिए यह अस्तित्व बचाने की लड़ाई तो नहीं?

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अखिलेश अखिल

क्या ‘बंगाल की शेरनी’ के नाम से मशहूर तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपने राजनीतिक करियर के सबसे कठिन दौर से गुजर रही हैं? जिस तरह से बंगाल में बीजेपी आक्रामक राजनीति करती दिख रही है और टीएमसी नेताओं को अपने ख़ेमे में ला रही है, ममता की मुश्किलें कुछ ज़्यादा ही बढ़ गई है। वैसे ममता का पूरा करियर ही चुनौतियों और संघर्ष से भरा रहा है। लेकिन ऐसा पहली दफ़ा देखने को मिल रहा है कि ममता का अस्तित्व ही ख़तरे में फंसता दिख रहा है। हाल तक सरकार और पार्टी में जिस नेता की बात पत्थर की लकीर साबित होती रही हो, उसके ख़िलाफ़ जब दर्जनों नेता आवाज़ उठाने लगे हों तो ऐसे सवाल उठने लाजि़मी हैं। यह बात दीगर है कि कांग्रेस की अंदरूनी चुनौतियों से जूझते हुए अलग पार्टी बनाकर लेफ्ट से दो-दो हाथ कर चुकीं ममता इन चुनौतियों से घबरा कर पीछे हटने की बजाय इनसे निपटने की रणनीति बनाने में जुट गई हैं।

टीएमसी  के इतिहास और ममता की पार्टी पर पकड़ को देखा जाए तो साफ़ होता है कि अब तक किसी नेता की इतनी हिम्मत नहीं थी कि उनके किसी फैसले पर अंगुली उठा सके। लेकिन अब बीते तीन-चार वर्षों में उनकी पकड़ कुछ कमज़ोर हुई है। पार्टी के नेताओं ने ममता की राजनीति पर न सिर्फ़ उंगुली उठाई है बल्कि दर्जनों नेताओं ने पार्टी से बाहर निकलने में कोई समय नहीं बिताया। यह बात और है कि लगभग दस साल तक सत्ता में रहने के बाद नेताओं में कुछ असंतोष औऱ नाराजगी तो जायज़ है। लेकिन बीजेपी ने ख़ासकर बीते लोकसभा चुनावों से जिस तरह आक्रामक रुख अपनाया है और पार्टी के नेताओं को अपने पाले में खींच रही है, वह ममता के लिए गंभीर चुनौती बन गई है। लोकसभा चुनावों के नतीजों के बाद ममता ने चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की सेवाएं ली थीं। लेकिन उनका ये पासा भी अब तक उल्टा ही पड़ता नजर आ रहा है। दवा के तौर पर आए प्रशांत पार्टी के लिए मजऱ् बनते जा रहे हैं। ऐसा लगता है कि कई नेताओं के पार्टी छोड़ने और पार्टी के भीतर फैलते असंतोष के पीछे मूल कारण प्रशांत किशोर ही बन गए हैं। लेकिन बावजूद इसके ममता का भरोसा उनपर जस का तस है।

प्रशांत किशोर टीएमसी की जीत सुनिश्चित करने के लिए हालांकि कई तरह की योजनाओं पर काम कर रहे हैं और लगता है कि पीके की यह योजना चुनाव के समय सार्थक भी हो लेकिन फिलहाल तो ममता परेशान हो ही गई हंै। प्रशांत की सलाह पर ही संगठन में बड़े पैमाने पर फेरबदल किए गए औऱ दाग़ी छवि वाले नेताओं को दरकिनार कर नए चेहरों को सामने ले आया गया। लेकिन बावजूद इसके पार्टी में मची भगदड़ इस बात का संकेत है कि तृणमूल में अंदरख़ाने सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। बीजेपी की ओर से राजनीतिक और प्रशासनिक मोर्चे पर मिलने वाली कड़ी चुनौतियों के बीच सत्ता बचाने के लिए जूझ रही किसी भी पार्टी के लिए यह स्थिति आदर्श नहीं है।

    ममता को एक साथ कई मोर्चों पर जूझना पड़ रहा है। पहले तो राजनीतिक मोर्चे पर बीजेपी की ताक़त और संसाधनों से मुक़ाबला उनके लिए कठिन चुनौती बन गया है। बीजेपी ने अगले चुनावों में जीत के लिए अपनी पूरी ताक़त और तमाम संसाधन बंगाल में झोंक दिए हैं। आधा दर्जन से ज़्यादा केंद्र्रीय नेताओं और मंत्रियों को बंगाल का जि़म्मा सौंप दिया है। दूसरी ओर, प्रशासनिक मोर्चे पर भी ममता की मुश्किलें लगातार बढ़ रही हैं।

     विधानसभा चुनाव जब सिर पर आ गया है तो थोक भाव में मची भगदड़ ने एक गंभीर समस्या पैदा कर दी है। इनमें मेदिनीपुर इलाक़े के बड़े नेता शुभेंदु अधिकारी समेत कई विधायक शामिल हैं। हालांकि इस भगदड़ के बावजूद ममता बहादुरी से मोर्चे पर डटी हैं। ममता का कहना है, ‘‘हमारी ताक़त आम लोग हैं, नेता नहीं। दलबदलू नेताओं के पार्टी छोड़ने से कोई फ़कऱ् नहीं पड़ेगा। ऐसे लोग पार्टी पर बोझ थे। आम लोग ही उनके विश्वासघात की सज़ा देंगे। बंगाल के लोग विश्वासघातियों को पसंद नहीं करते। ’’

 हालांकि टीएमसी में मची भगदड़ के लिए ममता भले ही पानी पी-पी कर बीजेपी को कोस रही हों, विपक्षी नेताओं और राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि बंगाल में दलबदल की परंपरा को ममता ने ही बढ़ावा दिया था।  अब एक दशक बाद इतिहास ़खुद को दोहरा रहा है।

    उधर, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी कहते हैं, ‘‘इतिहास ़खुद को दोहराता है और अब ममता को उनकी ही भाषा में जवाब मिल रहा है। कांग्रेस के गढ़ रहे मालदा और मुर्शिदाबाद में कई विधायकों और नेताओं को झूठे मामलों में फंसाने की धमकी देकर टीएमसी में शामिल होने पर मजबूर किया गया था। उस समय दल बदलने वाले कई लोग अब बीजेपी में चले गए है।’’

अब देखना है कि ममता आगे क्या कुछ कर पाती है और कैसे अपने गढ़ को बचा पाती है। अगर ममता अपनी सरकार बचा लेती है, तब देश की सबसे ताक़तवर नेता के रूप में वह उभर सकती है और फिर देश में एक नई  राजनीति की शुरुआत देखने को मिल सकती है। कह सकते हैं कि मोदी के ख़िलाफ़ एक साझा मोर्चा के उम्मीदार सामने आ सकते हैं और ममता का चेहरा साझा पीएम उम्मीदवार के रूप में सामने आ सकता है।F

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं दूसरा मत के वरिष्ठ संपादक हैं)