राजद्रोह पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बंधी उम्मीद

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ए आर आज़ाद

देश में राजद्रोह का मामला एक लंबे अरसे से तुल पकड़ता जा रहा है। और मीडिया में इसे लेकर लंबे अरसे से आलोचना भी होती रही है। नतीजे में कई पत्रकारों को राजद्रोह के मामलों से दो-चार भी होना पड़ा है। जो लोग यानी मीडिया के जिन लोगों ने सरकारी भोंपू बनने के बजाए सरकार को दशा और दिशा प्रदान करने की कोशिश की, सरकार ने सबसे पहले उन्हें अपना निशाना बनाया। दरअसल मौजूदा सरकार उन्हीं पत्रकारों को पत्रकार मानती है, जो पत्रकार उनके और उनकी सरकार के मुताबिक क़लम को नोक मोड़ सकें। यानी कहने का ़गरज़ यह है कि अगर कोई भी पत्रकार सरकार के सामने आंखें तड़ेरने की कोशिश करता है तो सरकार के पास उसकी आंखों को निकालने का एक हथियार है। और उसी हथियार को राजद्रोह कहा जा सकता है। यानी सरकार की आंखों की जैसै आप किरकिरी बनें, फौरन सरकार आपको जेलों की सला़खों में क़ैद कर देगी। और तब आप जेल और हवालात में तड़पते रहेंगे लेकिन आपकी कोई सुध लेने वाला नहीं होगा। दरअसल जब किसी एक  पत्रकार पर इस तरह का ़कानून थोपा जाता है तो इसका संदेश दूर तक चला जाता है। आज भी ज़्यादातर पत्रकार इस भय से कांपते हुए नज़र आते हैं। यही वजह है कि कल से लेकर आजतक ज़्यादातर पत्रकार सरकारी गुणगान को अपनी वास्तविक पत्रकारिता समझते हैं। और ऐसी ही पत्रकारिता करके देश व समाज में अपनी महत्ता भी सिद्ध करने में सामथ्र्य दिखते हैं। क्योंकि आप सरकार के साथ खड़े नहीं होंगे तो आपको सरकारी सुविधा भी नहीं मिलेगी और सरकार के आसपास फटकने का अवसर भी नहीं मिलेगा।

बहरहाल आज भी ऐसे मीडियाकर्मियों और पत्रकारों की कमी नहीं है, जो वास्तविक रूप से पत्रकार हैं। और विशुद्ध पत्रकारिता धर्म को निभाना ही अपना धर्म और कर्म मानते हैं। वो विकट से विकट परिस्थितियों में भी सरकार का भोंपू बनना पसंद नहीं करते हैं। और अपनी पूरी तत्परता के साथ कोई भी सरकार हो उसे आईना दिखाने से गुरेज़ भी नहीं करते हैं। ऐसे ही पत्रकारों से देश कल भी जगमग था। और आज भी ऐसे ही पत्रकार देश को जगमग कर रहे हैं। और ऐसे ही पत्रकारों के लिए सुप्रीम कोर्ट ने भी इंसाफ़ का एक पट खोला है। यानी सुप्रीम कोर्ट इस अजारक धारा का पोस्टमार्टम करने के लिए तैयार हो गई है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर अपनी गंभीरता दिखाई है। और जिससे अब लगने लगा है कि पत्रकारों को बिना किसी ख़ौफ़ के सच्ची ़खबर लिखने की एक नई उम्मीद और उत्साह जगी है।

 

सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह की धारा 124ए की वैधता की त़फ्तीश करने का फैसला किया है। और इसके लिए तीन जजों वाली बेंच के ज़रिए इस पूरे मामले को गंभीरता से लिया। तीन जजों वाली बेंच में जस्टिस के एम जोसेफ, इंदिरा बनर्जी और जस्टिस यू यू ललित शामिल हैं।

पत्रकारों की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस भी जारी किया है। और सरकार से एक तय वक़्त में जवाब भी तलब किया है। यानी अब इस क़ानून के ज़रिए इसके हो रहे ग़लत इस्तेमाल पर सुप्रीम कोर्ट की भी नज़र है। सुप्रीम कोर्ट ने आंध्र प्रदेश के दो न्यूज़ चैनलों के ख़िलाफ़ कार्रवाई पर महज़ रोक ही नहीं लगाई बल्कि राजद्रोह के मामले पर तल़्ख टिप्पणियां भी की। और ऐसे मौ़के पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना उदगार व्यक्त करते हुए कहा कि अब वक़्त आ गया है कि राजद्रोह की सरहद तय कर दी जाए। और इसे एक सीमा में बांध दी जाए। यानी राजद्रोह को अब परिभाषित कर दी जाए। सुप्रीम कोर्ट ने अपनी तल़्ख टिप्पणी में ये भी कहा कि हमारा मानना है कि आईपीसी की धारा 124 ए और 153 के प्रावधानों की व्याख्या की ज़रूरत है। प्रेस व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मुद्दे पर ख़ासतौर पर इसकी आवश्यकता है।

ग़ौरतलब है कि धारा 124 ए को लेकर कई बार सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की है। ऐसा ही एक मामला 1962 में आया था। तब उस समय सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि नारेबाज़ी करना देशद्रोह के दायरे में नहीं आता है। और जब कई मामले अदालत की चौखट तक आएं तो सरकार और प्रशासन का राजद्रोह का आरोप वहीं पर दम तोड़ता हुआ भी नज़र आया। कई बार और इस तरह के कई मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार और प्रशासन के  ख़िला़फ उठाई गई आवाज़ को राजद्रोह मानने से इंकार कर दिया।

बहरहाल सुप्रीम कोर्ट का यह नज़रिया और राजद्रोह के मामले पर बेबाकी प्रेस की स्वतंत्रता के लिए शुभ संकेत है। अदालत ने मीडिया की आज़ादी के फेवर में अपनी भावना से अवगत कराया है। सरकार को भी अदालत की इस भावना की क़द्र करनी चाहिए। और देश की भावना से साथ चलते हुए अंग्रेज़ों के ज़माने के इस ़कानून को ़खत्म करने की तरफ अपना क़दम बढ़ाना चाहिए। ताकि सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच एक नई जंग सामने न आ सके। क्योंकि एक अच्छी अदालत- सरकार नहीं समाज, देश और देशकाल के मुताबि़क फैसले सुनाती है।