ए आर आज़ाद
एक अजीब ़िकस्म की आग सत्ता के गलियारों में लगी हुई है। राजनीति के शीर्ष पर अपना ़कदम रखने के लिए हर कोई बेताब है। कुर्सी झपटने का ऐसा ़खुमार छाया है कि क्या बुरा, क्या भला का होश ही नहीं रहा? डर है कि इस सत्ता की मदहोशी और महत्वाकांक्षी की ़गज़ब होड़ में बंगाल कहीं फिर अपने ़खूनी इतिहास को न दोहरा दे, जिस पर लगभग एक दशक से विराम लग चुका है।
यह डर और संशय मन की बेचैनी भी है और सच्चाई की एक तस्वीर भी। बंगाल को बदलने की महत्वाकांक्षा, सबकुछ अपनी मुट्ठी में ़कैद कर लेने की हवस की तरफ़ बढ़ती जा रही है। इस महत्वकांक्षा में बंगाल की न कोई हमदर्दी छिपी है और न ही कोई बंगाल को बेहतर बंगाल करने की कल्पना और परिकल्पना को मूर्तरूप देने की लालसा।
ज़ाहिर है बंगाल का चुनाव सिर पर है। बिहार में बीजेपी के सिर का ताज नीतीश कुमार पहन चुके हैं। नतीजतन बीजेपी में ़गुरूर और अपनी रणनीति पर ़फख्ऱ होना स्वाभाविक है। स्वाभाविक है वह परिणाम, जिससे नीतीश को नाथने में बीजेपी को अब मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी। अब नीतीश कुमार बीजेपी के दो उपमुख्यमंत्रियों के बीच ‘चुप मुख्यमंत्री’ बनकर या तो बीजेपी के एजेंडों पर काम करेंगे या फिर ‘बेमेल शादी’ के प्रकरण को दोहराकर अपना दमखम और अपनी सियासी शऊर का नज़राना समाज को पेशकर बीजेपी के अंहकार का अंत करने की एक पटकथा तैयार करेंगे। वो कहानी का प्लाट बंगाल चुनाव से पहले भी तैयार कर सकते हैं और बंगाल चुनाव के बाद भी।
ज़ाहिर है बीजेपी अपने आपको राष्ट्रवाद और पाक दामन का प्रतीक मानती है। लेकिन वह जो करती है, उसमें इस सच्चाई का अक्सर अभाव दिखता है। स्वच्छ छवि की दुहाई देने वाली बीजेपी अक्सर अपने ही जाल में फंस जाती है। बंगाल में बीजेपी ने जिसे-जिसे भ्रष्टाचार का प्रतीक मानकर टीएमसी और उसके मुखिया ममता बनर्जी पर हमला किया, आज उसी भ्रष्टाचार के प्रतीक को अपनी गोद में बिठाकर उसके हवाले बंगाल को सौंप दिया है। जनता के ज़हन में सवाल उठना लाज़मी हो जाता है कि क्या बीजेपी के पास कोई ऐसा ईश्वरीय वरदान है, जिससे उसके संपर्क में आते ही सारे पाप लोगों के धूल जाते हैं?
यक्ष प्रश्न है- बीजेपी जिसे साल दर साल से भ्रष्टाचारी, अनैतिक और असमाजिक कहती रहती है, उसके गले लगते ही वह आदमी सारे पापों और कुकर्मों से मुक्त होकर पवित्र हो जाता है?
दरअसल पिछले एक दशक से बीजेपी की रणनीति बदली है। यह सब उसी रणनीति का हिस्सा है। वह पूरे भारत में अपना झंडा फहराना चाहती है। सोने की सीढ़ी लगाकर ‘स्वर्ग’ पहुंचने की बीजेपी की इस मंशा को हिंदू-मुस्लिम ऩफरत की धरातल मिल गई है। ज़ाहिर है लाशों की राजनीति में विश्वास करने वाले बीजेपी के कुछ अहम नेता हर हाल में सत्ता की चाबी अपने हाथ में रखना चाहते हैं। जहां उन्हें चाबी नहीं सौंपी जाती, वहां ‘मास्टर की’ का सहारा लेकर उसपर ़काबिज़ होना चाहते हैं।
“ममता बनर्जी ने एक दशक में अपने शासन की कार्यशैली पेश की है। उनमें बंगाल का दम दिखता है। उन्होंने बंगाल को केंद्र की रहमोकरम पर कभी नहीं छोड़ा। अपने दमखम पर बंगाल की अस्मिता और उसकी तेजस्विता को बनाए और बऱकरार रखा। उनकी सादगी से कौन अभिभुत नहीं है। उनकी सादगी में चमत्कार है। उनके बोल में कड़वाहट और काम में मिठास। उनके क़दम में तेज़ी है और मन में बंगाल को शीर्ष पर ले जाने का उल्लास। दीदी के नाम से मशहूर ममता बनर्जी महिलाओं में आदर्श हैं तो नौजवान लड़कियों की आईकॉन। वह बंगाल के लिए एक ऐसी प्रेरक बनकर उभरी हैं कि उनकी सादगी को सब सलाम करता है। उनके दामन बेदा़ग हैं। हां, दीदी को द़गा देने वालों और बीजेपी को अपना नया ‘तीर्थ स्थल’ समझने वाले नेताओं का दामन उजला नहीं है।”
ज़ाहिर है बंगाल बीजेपी के निशाने पर है। जब बंगाल बीजेपी के निशाने पर है तो फिर ममता बनर्जी जो सरकार और बंगाल की मुखिया हैं, उन्हें सियासी पटखनी देने के लिए हर हथकंडे को अपनाना बीजेपी के लिए लाज़मी ही है। बीजेपी उनके घर में टूट पैदाकर अपना कुनबा मज़बूत करना चाहती है। इस सोच और इस सियासत में बीजेपी माहिर है। नतीजतन बीजेपी को इसमें कामयाबी भी मिली है।
जब बात देश की होती है तो उस देश का अपना एक अतीत और गौरवशाली इतिहास भी होता है। भारत का इतिहास नैतिकता से भरा-पड़ा है। अनैतिक रूप से मिली कामयाबी इतिहास में कभी भी स्वर्ण अक्षरों से नहीं लिखी जाती है। हमेशा वह इतिहास का काला अध्याय ही साबित होता है। सियासत को आप अपवाद नहीं मान सकते। किसी भी देश की सियासत का तर्जोअमल उस देश की व्याख्या करता है। अगर सियासत ही गंदी हुई तो फिर वह देश कितना साफ-सुथरा कहलाएगा!
देश की प्रतिष्ठा को धूमिल कर और समाज में टूट, बिखराव और अलगाव के ज़रिए सत्ता पर ़काबिज़ होने की चाहत कभी भी परंपरा नहीं बननी चाहिए।
यह देश विविधता में एकता का प्रतीक है। इस प्रतीक को मिटाने का प्रयास जब सरकारी बन जाए तो फिर उसे आप राष्ट्रवाद का नाम नहीं दे सकते। राष्ट्रवाद में राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने की परिकल्पना होती है। और राष्ट्र के गीता, वेद, पुराण, कुरआन, बाइबिल और गुरु ग्रंथ साहिब का समावेष ग्रंथ ‘भारत का संविधान’ को अमली तौर पर अंगीकार करने की अदभुत ईमानदार कोशिश का दर्शन भी होता है। जब देश का शासक और प्रशासक देश के ‘संविधान’ से ज़्यादा ़खुद को महत्वपूर्ण मानने लगे तो यहीं से राष्ट्रवाद और उस देश की गरिमा का पतन होने लगता है। नतीजतन उस शासन और शासक की जग हंसाई होने लगती है। उस जग-हंसाई से ज़ाहिर है शासक कई बार बौखला भी जाता है और उसी बौखलाहट में उसके फैसले जनहित और लोकहित के बजाय उसके लिए पीठ का बोझ साबित हो जाते हैं। उन फैसलों से देश के नौजवानों की कमर झुकने लगती है।
आज यही हो रहा है। दो तरह का नज़ारा बीजेपी एक साथ पेश कर रही है। बंगाल के किसान के घर उनके प्रभावशाली नेता भोजन करते हैं और दिल्ली की सीमा पर डटे देश के किसान बेमौत मर रहे हैं लेकिन उनकी सुध लेने और उन तक पहुंचकर साथ खाना खाने की ज़हमत तक नहीं उठाते हैं। दुखद। दुर्भाग्यपूर्ण लेकिन सत्य। किसानों की मौत रोज़ ब रोज़ हो रही हैं लेकिन सरकार के लिए बंगाल का चुनाव महत्वपूर्ण है, देश का किसान नहीं। बंगाल चुनाव ़फतह करने के लिए केंद्र की पूरी ता़कत वहां झोंक दी गई है। और देश का किसान ठंडी हवाओं के थपेड़ों और बारिश के बीच अपना घर-बार छोड़कर दिल्ली की सरहद पर ज़िंदगी की जंग लड़ रहा है। सरहद और सीमा का नाम लेकर देश में ज्वाला भरने वाली सरकार उन सरहद के सपूतों की आंखों के आंसू को भी नहीं पोंछना चाह रही है- जिनके पिता, भाई, और माता व बहना अपनी मांग को लेकर महीनों से समस्याओं की बारिश और असंवेदनशीलता की सरकारी धुंध व कोहरे में अपना जीवन बीता रहे हैं।
दुखद! अत्यंत दुखद!!
बहरहाल बंगाल का असली खेल अब शुरू होने वाला है। दोनों ओर से सरकार बचाने और सरकार हथियाने का खेल बदस्तूर जारी है। बीजेपी के लिए बंगाल अभी महत्वपूर्ण इसलिए है कि बीजेपी ने बंगाल के आसपास के सभी सूबों पर अपना ़कब्ज़ा जमा लिया है। झारखंड हाथ से निकल गया। उड़िशा की ज़मीन उसके लिए इतनी उपजाऊ नहीं है। बंगाल में जो बीजेपी ने बीज बोया था लोकसभा में वह लहलहाती फसल बनकर सामने आ गया। 2019 ने बीजेपी के रणनीतिकार को हौसला दिया और उसी हौसले से बीजेपी मान बैठी है- बंगाल को वह फतह कर लेगी और 200 सीट लाकर ममता को रास्ते के पत्थर की तरह हटा देगी।
बीजेपी को समझना चाहिए कि देश का चुनावी मिजाज़ मौसम की तरह बदलता है। कई बार बेमौसम बारिश हो जाती है और कई बार बारिश के मौसम में भी कड़ी धूप खिलकर तपिश की तल़्खी पैदा करते हुए बेचैन कर देती है। बंगाल लोकसभा चुनाव में 18 सीट जीतने वाली बीजेपी उसी फॉर्मूले पर 200 सीट जीतने की कल्पना कर रही है। कल्पना और योजना हमेशा एक सूत्र में बंधकर नहीं रहती है। जनता का मिजाज़ और मन भी अब ज़्यादा देर तक बंधा नहीं रहता है। यही वजह है कि चुनाव के पूर्व के सर्वे और वोटों के बाद के ज़्यादातर सर्वे अपनी विश्वसनीयता को बचा नहीं पाते हैं।
ममता बनर्जी ने एक दशक में अपने शासन की कार्यशैली पेश की है। उनमें बंगाल का दम दिखता है। उन्होंने बंगाल को केंद्र की रहमोकरम पर कभी नहीं छोड़ा। अपने दमखम पर बंगाल की अस्मिता और उसकी तेजस्विता को बनाए और बऱकरार रखा। उनकी सादगी से कौन अभिभुत नहीं है। उनकी सादगी में चमत्कार है। उनके बोल में कड़वाहट और काम में मिठास। उनके क़दम में तेज़ी है और मन में बंगाल को शीर्ष पर ले जाने का उल्लास। दीदी के नाम से मशहूर ममता बनर्जी महिलाओं में आदर्श हैं तो नौजवान लड़कियों की आईकॉन। वह बंगाल के लिए एक ऐसी प्रेरक बनकर उभरी हैं कि उनकी सादगी को सब सलाम करता है। उनके दामन बेदा़ग हैं। हां, दीदी को द़गा देने वालों और बीजेपी को अपना नया ‘तीर्थ स्थल’ समझने वाले नेताओं का दामन उजला नहीं है।
बंगाल के लिए ममता दा़ग नहीं, दीदी हैं। एक ऐसी दीदी जो उम्मीदों की किरण की तरह लोगों के मन में वजूद बनकर ठहरी हुई हैं। और आत्मविश्वास की चादर में सच का उजाला बिखेरते हुए तपाकी ़कदमों से बढ़ती जाती हैं और एक नया इतिहास गढ़ती जाती हैं। उनमें बंगाल के लोग एक संभावना देख रहे हैं। उन्हें लगने लगा है कि 2021 में वह मुख्यमंत्री तो बनी रहेंगी लेकिन 2024 में देश की आवाज़ बनेंगी और यह भी मुमकिन है कि यह देश ‘दीदी का देश’ के नाम से मशहूर हो जाए।
बंगाल का इतिहास और भूगोल वर्तमान कसौटी पर भी यही इज़हार करता हुआ नज़र आ रहा है कि ममता बनर्जी 200 सीटों के आकड़े को छूते हुए अपनी सरकार को बड़े करीने से बचाते हुए उस इतिहास को दोहराएंगी, जिस इतिहास को कांग्रेस और लेफ्ट ने कभी दोहराया है। हां, वह ज्योति बसू की तरह प्रधानमंत्री के प्रस्ताव को ठुकराकर अनवरत मुख्यमंत्री ही बने रहने की ज़िद नहीं करेंगी, बंगाल की यह ज़िद्दी दीदी।