ए आर आज़ाद
इस देश में विपक्ष कमज़ोर ही नहीं, कितना लाचार और बेबस है इसका ताज़ा उदाहरण देश के सामने है। सरकार बिना विपक्ष की राय जाने और समझे रातों-रात क़ानून पास करा लेती है और विपक्ष को इसकी भनक भी नहीं लगती है। जब क़ानून पारित होकर, राष्ट्रपति की रज़ामंदी की मुहर के साथ देश में लागू होने के लिए मचल उठता है तो विपक्ष की आंखें खुलती है। विपक्ष जगने के बाद महीनों अपनी आंखें मलता रहता है और फिर अपनी विवशता की चादर ओढ़कर देश से मुंह छिपाता फिरता है। जिस पर पड़ती है, वही उस दर्द को जानता है। जिसकी छप्पर चूती है वही उसकी मरम्मत करता है। ज़ाहिर है इन तीन ़कानूनों से किसानों की कमर टूटने वाली है। इसलिए उसने आंदोलन की लाठी का सहारा लिया है। बुढ़ापे की लाठी बड़े काम की होती है। वह मरते दम तक उसे छोड़ना नहीं चाहता है। यही वजह है कि किसान मरने को तैयार हैं लेकिन किसी भी हालत में उस लाठी को यानी आंदोलन को तब तक छोड़ने को तैयार नहीं हैं जब तक सरकार इन ़कानूनों को पूरी तरह से रद्द न करे। अब इसे समझने की कोशिश करते हैं कि आख़िर इन तीनों क़ानूनों में क्या है कि किसान अपना घर बार और परिवार छोड़कर शीतलहरी, जानलेवा ठंढ़क, हड्डी गला देने वाली ब़र्फीली हवाओं के बावजूद डटे हैं और सरकार के ख़िला़फ हल्ला बोल रहे हैं।
पहला क़ानून, कृषक ऊपज व्यापार और वाणिज्य (संर्वधन और सरलीकरण) विधेयक,2020
इस क़ानून के ज़रिए सरकार किसानों के लिए विकल्प बढ़ाने का दावा करती है। सरकार यह भी दावा करती है कि किसान इस क़ानून के ज़रिए अपनी फसल को एपीएमसी की मंडियों से परे या इतर जाकर भी बेच सकते हैं। सरकार कहती है कि इससे किसानों को फायदे होंगे और वो अपनी फसलों को ऊंची ़कीमतों में बेच पाने में सक्षम होंगे। ज़ाहिर है सरकार का दावा अपनी जगह है लेकिन इस ़कानून से एपीएमसी मंडियों को एक हद और हदूद में बांध दिया गया है। इस क़ानून के ज़रिए कॉरपोरेट ख़रीददारों के लिए आसान रास्ता और लाभ वाला मार्ग खोल दिया गया है। वे बिना किसी नियम, क़ानून और क़ायदे के दायरे में आते हुए किसानों की ऊपज को हथिया सकेंगे, ख़रीद सकेंगे, बेच सकेंगे। ज़ाहिर सी बात है कि ऐसा होते ही धीरे-धीरे एपीएमसी मंडियों की ज़रूरत ही ख़त्म हो जाएगी। इसका दुष्परिणाम यह होगा कि सरकार को इसकी भनक ही नहीं लगेगी कि किस मूल्य पर कितना माल ख़रीदा गया और कितना बेचा गया? यानी किसने जमा़खोरी कर रखी है, इसकी पड़ताल करने की न तो सरकार को ज़रूरत महसूस होगी और न सरकार उसपर लगाम लगाने की कोशिश ही कर सकती है। सरकार अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्त होकर बाज़ार को दो टुकड़ों में बांट देगी। एक बाज़ार एपीएमसी बाज़ार होगा और दूसरा खुला बाज़ार। यह भय ग़लत नहीं है कि दोनों के अपने नियम होंगे और मूल्य निर्धारण की दक्षता और क्षमता अलग होगी। खुला बाज़ार को टैक्स मुक्त कर एपीएमसी बाज़ार को कमज़ोर करने को कोशिश इस नए कृषि क़ानून में की गई है।
दूसरा क़ानून, ‘कृषि सशक्तिकरण और संरक्षण’ ़कीमत आश्वासन और कृषि सेवा ़करार विधेयक, 2020
इस क़ानून के ज़रिए किसानों के विवाद को निपटाने के तौर-तरी़के की व्याख्या की गई है। किसानों को इस ़कानून के ज़रिए सिविल कोर्ट जाने पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी गई है। यही वजह है कि किसान डटे हुए हैं और डरे हुए हैं। इस क़ानून में विवाद का पहलू और भी गंभीर है। अगर कोई विवाद होता है तो उसमें महीनों के चक्कर लगने के प्रामाणिक प्रमाण शामिल हैं। उन्हें इस क़ानून में सिविल कोर्ट का सहारा लेने से भी बंचित कर दिया गया है। उन्हें अदालत की जगह ब्यूरोक्रेसी और ट्रिव्यूनल के दरवाज़े को खटखटाने भर तक की ही इजाज़त दी गई है। इस क़ानून के ज़रिए ने या तो अपने अन्नदाता को लाचार, बेबस, अपंग, ख़ुदकुशी करने वाला समझ लिया है या फिर मूर्ख?
तीसरा क़ानून, ‘आवश्यक वस्तु संशोधन’ विधेयक, 2020
किसान ही इस क़ानून से हतोत्साहित नहीं हैं बल्कि कुछ जागरूक आम इंसान भी अभी से ही इस ख़तरे को भांपने लगे हैं। वे भी डरे हुए हैं। वे भी सहमे हुए हैं। इस क़ानून में अपने स्टॉक को जुटाने की अपूर्वभूत छूट दी गई है। यानी किसानों से अनाज सस्ते दर पर लेकर उसका भंडारण करके बाज़ार में स्टॉक की कमी दिखाकर मनमाने तरी़के से उस अनाज की क़ीमत तय की जाएगी। ज़ाहिर है यह खुली छूट आम जनों को भी महंगाई का शिकार बनाएगी और जमाख़ोरी एवं कालाबाज़ारी के बाज़ार का अभ्युदय होगा। सरकार ने इसमें हस्तक्षेप करने का जो प्रावधान किया है, वह माथा पीटने वाला है। आप भी जानेंगे तो आपका भी माथा ठनक जाएगा। सरकार इस ़कानून में तभी हस्तक्षेप करेगी जब युद्ध, भुखमरी या बड़ी ही जटिल परिस्थिति देश में उत्पन हो जाएगी।
इसमें भी सरकार कहती है कि इससे किसानों का फायदा है। भला सरकार से कौन पूछे कि देश के कितने किसानों के पास कोल्ड स्टोरेज हैं, गोदाम हैं। या कितने गांव और कितनी पंचायतों में इस तरह की सुविधाएं हैं। फिर देश के किसान अपनी फसल को बाहर में रखकर धूप और पानी से उसे भला क्यों बर्बाद करेंगे? इससे तो बेहतर है कि वह तत्काल मंडी में ही जाकर न्यूनतम समर्थन मूल्य के तहत अपनी फसल का सौदा कर लें और उससे मिली ऱकम से क़र्ज़ भी चुकाएं और घर भी चलाएं।
सरकार को मालूम होना चाहिए कि इस देश में 80 प्रतिशत छोटे और मंझोले किसान हैं जो भंडारण व्यवस्था से हाथ धोए हुए बैठे हैं। क्योंकि गोदाम के लिए उनके पास पूंजी नहीं है। सरकार और देश के सामने एक यक्ष प्रश्न यह है कि न तो देश और न ही देश के किसान और न ही किसान संगठनों ने ऐसे किसी क़ानून की सरकार से मांग की थी तो फिर आनन-फ़ानन में ये तीनों क़ानून क्यों लाए गए और किसके लिए लाए गए? ऐसा सवाल इसलिए है कि यह क़ानून किसानों पर जबरन थोपा हुआ क़ानून प्रतीत होता है। और इसे असंवैधानिक भी कहा जा सकता है क्योंकि यह क़ानून भारत के फ़ेडरल स्ट्रक्चर यानी संघवाद को ध्वस्त करता नज़र आ रहा है। दरअसल कृषि राज्य और केंद्र दोनों का विषय है। यह संविधान के समवर्ती सूची में आता है।