देश में आजादी का सूरज उगाने की शपथ का ही नाम है अगस्त क्रांति

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ए आर आज़ाद

दरअसल इस आंदोलन की शुरूआत देश की आर्थिक और फिल्मी राजधानी मुंबई से हुई थी। जिस पार्क में इस आंदोलन को अंजाम दिया गया था, आज उस पार्क को अगस्त क्रांति मैदान के नाम से जाना जाता है।

नमस्कार दोस्तों, आज 9 अगस्त है। और आज ही के दिन एक ऐसी क्रांति हुई थी, जिसे इतिहास ने अगस्त क्रांति के नाम से पुकारा। अगस्त क्रांति का सीधा और सपाट मतलब है-आजादी की लड़ाई का अंतिम आंदोलन।

हम सबको मालूम है कि देश को आजादी यूं ही नहीं मिली। अंग्रजी सत्ता के खूंटों को उखाड़ फेंकने के लिए देश में हजारों आंदोलन हुए, तब जाकर आजादी के सुयोर्दय का भारत में उदय हुआ। अंग्रेजों को भारत से हर हाल में बिदा करने के प्रण का ही दूसरा नाम है-अगस्त क्रांति। गांधी जी की लीडरशिप में करो या मरो का नारा देकर भारत के युवाओं से अंग्रेजों को भगाने का आह्वाण किया गया था। आजादी का यह अंतिम आंदोलन ठीक आज ही के दिन यानी आज से ठीक 79 साल पहले 9 अगस्त,1942 को हुआ था।

दरअसल इस आंदोलन की शुरूआत देश की आर्थिक और फिल्मी राजधानी मुंबई से हुई थी। जिस पार्क में इस आंदोलन को अंजाम दिया गया था, आज उस पार्क को अगस्त क्रांति मैदान के नाम से जाना जाता है।

इतिहास इस अगस्त क्रांति की विवेचना करता हुआ कहता है कि द्वितीय विश्व युद्ध के समय अंग्रेजों ने भारत से सहयोग मांगा था और बदले में देश को आजाद करने की उन्होंने सौगंध खाई थी। लेकिन जब उन्होंने सहयोग और समर्थन देने का वादा नहीं निभाया, तो महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के इस वादा खिलाफी को औजार बनाकर अंतिम युद्ध का ऐलान कर दिया। इस ऐलान से अंग्रेजी हुकूमत तिलमिला भी गई और भयभीत भी हो गई।

9 अगस्त,1942 की क्रांति की शुरूआत के पीछे की भूमिका यही है कि जब अंग्रेजों ने अपने वादे से मुकर गए तो 4 जुलाई,1942 को कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पास कर दिया। प्रस्ताव यह था कि अगर अंग्रेज भारत नहीं छोड़ते है तो उनके खिलाफ देशव्यापी पैमाने पर नागरिक अवज्ञा आंदोलन की शुरूआत की जाएगी। कांग्रेस की ओर से यह प्रस्ताव तो सर्वसम्मति से पारित हो गया। लेकिन इस फैसले को लेकर कांग्रेस दो खेमों में बंट गई। दरअसल इसके पीछे सीधा कारण यह था कि कांग्रेस के कुछ लोग इस फैसले के हक में नहीं थे। इस फैसले से चक्रवर्ती गोपालाचारी इतने नाराज हुए कि उन्होंने पार्टी ही छोड़ दी। यही नहीं कहा जाता है कि पंडित जवाहर लाल नेहरू और मौलाना आजाद भी इस पेशकश को लेकर पसोपेश में थे। लेकिन गांधी जी के इस आह्वाण को उन्होंने मानना ही दुरुस्त समझा।

दूसरी तरफ इस आंदोलन का खुलकर समर्थन करने वालों में सरदार वल्लभ भाई पटेल, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण आदि का नाम शुमार है। कुछ दलों ने इसका खुलकर विरोध किया। हिंदू महासभा ने तो इसका खुलकर विरोध किया था। हिंदू महासभा के विरोध को लेफ्ट का भी सहयोग मिल गया था। क्योंकि लेफ्ट भी इस प्रस्ताव के खिलाफ अपना स्वर मुखर करने लगा। यानी आप कहर सकते है कि कांग्रेस इन दोनों दलों को अपने इस प्रस्ताव के धागे में बांधकर रखने में उस समय कामयाब नहीं हो सकी थी।

बहरहाल 4 अगस्त के इस प्रस्ताव को 8 अगस्त को कांग्रेस के बंबई अधिवेशन में मूर्त रूप दिया गया। और 8 अगस्त को भारत छोड़ो आंदोलन यानी अगस्त क्रांति का प्रस्ताव पारित किया गया। और अगल दिन यह प्रस्ताव अमली जामा पहना और एक आखिरी आंदोलन की शुरूआत हुई। जिसे इतिहास क्रांति दिवस के नाम से जानता है।

बहरहाल इस क्रांति दिवस में गांधी जी आग में तपकर और निखर गए। गांधी जी को अपने ही लोगों, हिन्दू महासभा और लेफ्ट जैसी पार्टियों का विरोध तो सहना ही पड़ा। उन्हें बिट्रिश सरकार का भी कोपभाजन बनना पड़ा। लेकिन उन्होंने जीवन की अपनी साधना से बिना विचलित, बिना भयभीत हुए देश को आजादी दिलाने के मकसद को पूरा करने के मंसूबों को पूरा करने में जी जान से जुट गए। वो अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए विरोधियों को भी अपने पाले में कर लेने की कला में महारथ हासिल करने के लक्ष्य के साथ आगे बढने की दिशा में अग्रसर होते चले गए।

आरोप लगाने वालों ने तो उस समय गांधी जी को नीरो से निरुपित किया। और यहां तक कि कुछ न तो पत्र लिखकर भी गांधी जी को हतोत्साहित करने की कोशिश की। एक पत्र गांधी जो को लिखा गया। उस पत्र में गांधी जी से पूछा गया कि आपके और नीरो के बीच फर्क क्या है। जब रोम जल रहा था वह सारंगी बजा रहा था। क्या आप भी देश में आग लगाकर सेवाग्राम में बैठे सारंगी बजाएंगे। यानी इस पत्र का लब्बोलुआब यह था कि गांधी जी ने जिस क्रांति दिवस की शुरूआत की योजना बनाई है, उससे पूरे देश में हलचल मच गई है। और यह मामला आग की तरह फैल गया है। देश पूरा उद्वेलित हो गया है। इतने बड़े देश में लगे आग को हैंडिल करना गांधी जी के बूते की बात नहीं है। लेकिन जब 15 अगस्त,1947 को देश को आजादी मिली, तो इस पत्र की पोल खुलकर रह गई। दरअसल एक खास मानसिकता के लोग गांधी जी को हतोत्साहित कर एक तरह से अंग्रेजों की मदद ही करना चाह रहे थे। लेकिन गांधी जी ने अपनी काबिलयत और पक्के इरादे से उनके मंसूबों पर कई घड़ा पानी फेर दिया। और देश में आजादी का सूरज उगाकर ही छोड़ा।

ऐसा नहीं है कि गांधी जी ने उस पत्र का जवाब नहीं दिया। उन्होंने हरिजन में अपने जवाब में लिखा। अगर मुझे दियासलाई लगानी ही पड़ी और वह तीली सीली यानी गीली न साबित हुई तो मेरे और नीरो के बीच का फर्क मालूम हो जाएगा। उन्होंने आगे लिखा,- अगर मैं अपने हाथों जलाई ज्वालाओं पर काबू न रख सका तो आप मुझे सेवाग्राम में सारंगी बजाते देखने के बदले उनमें जलते देखने की आशा रख सकते हैं।

बहरहाल यह क्रांति दिवस हमें अपने पूर्वजों के वलिदानों की भी याद दिलाता है। और यह भी हमें याद दिलाता है कि हमारे पूर्वज किस तरह से सौगंध को पूरा करने के लिए अपनी आहूति देना पसंद करते थे। हमारे पूर्वजों में वादा खिलाफी के प्रति नाराजगी का रवैया कैसा होता था। वह वादा खिलाफी करने वालों के खिलाफ तबतक बिगुल बजाते थे, जब तक उसका वजूद न मिटा दें, उसका जमा-जमाया खूंटा न उखाड़ दें। हमें भी ऐसे ही रास्ते को चुनना होगा तभी कोई भी अंग्रेज जैसा शासन करने वाली सरकार हमारी मानसिकता को समझकर नाइंसाफी और वादा खिलाफी करने से डर सके।