ए आर आज़ाद
कोरोना की दूसरी लहर में इंसानियत भी तार-तार होकर रह गई। सरकार तो सरकार अस्पताल और उस अस्पतालों के नर्सिंग स्टॉफ समेत डॉक्टरों ने भी जो इंसानियत के साथ खिलवाड़ किया उस सुनकर लोगों का कलेजा मुंह को आ गया। ज़रा कल्पना कीजिए जिन्होंने अपनी इस आंखों से ऐसे खिलवाड़ों को देखा होगा, उनपर क्या बीती होगी? इस दुखद परिस्थिति में मदद खोजती आंखें जब पथरा जाएं तो आप उसे क्या कहेंगे? पूरा का पूरा परिदृश्य मातमी मंज़र में जब तब्दील हो जाए, तो उसे आप क्या कहेंगे?
कोरोना बला है या वबा या बीमारी? अभी तक पूरी दुनिया के वैज्ञानिक, अनुसंधानकर्ता और चिकित्सकों में एक राय या कहें कि एक सहमति नहीं बन पाई है। पूरी दुनिया के लोग कोरोना नाम के प्रकोप से भलीभांति परिचित तो हो चुके हैं। लेकिन किंहीं के पास इसके समुचित निदान का कोई खाका नहीं। और इसी नतीजे में पूरी दुनिया कोरोना की गिरफ़्त में ख़ुद को मजबूर और बेबस मानकर हाथ पर हाथ धड़कर बैठी हुई है।
विश्व के मानचित्र पर ज़रा ग़ौर करें तो पता चलता है कि विश्व के कई देश इस भयावह डरावनी स्थिति से उबर चुके हैं। जिस चीन में कोरोना की दस्तक सबसे फैले हुई, वह चीन अपने आपको इस भयावहता से बाहर निकालने में सोलह आने खरा उतरा। चीन ने अपने देश के नागरिकों को एक तरह से अपनी मुस्तैदी से इस प्रकोप और मनोवैज्ञानिक आंतक से बाहर निकाल लिया। इसी तरह अमेरिका और दूसरे प्रभुत्वशाली संपन्न् देश भी इससे उबरने में बहुत हद तक कामयाब रहे। हत्ता कि पड़ोसी देश बांग्लादेश और पाकिस्तान भी इससे उबर पाया। कोरोना के मनोवैज्ञानिक धार को को पड़ोसी राष्ट्र नेपाल ने भी काफी हद तक कुंद करने में कामयाब रहा।
भारत के परिदृश्य में जब देखते हैं तो पता चलता है कि भारत इसे आपदा तो माना। लेकिन इस आपदा से छूटकारा पाने की उसमें कोई छटपटाहट नहीं दिखी। भारत में नेताओं की ख़रीद-फ़रोख़्त, राज्यों पर अपने दल का परचम लहराने की होड़ और चुनाव के ज़रिए दूसरे के हिस्से में आए राज्यों को भी ऐन-केन-प्रकारेण अपने क़ब्ज़े में लेने की हठजोड़ ने कोरोना जैसी विपदा को आमंत्रण दे दिया। जिस तरह से पांच राज्यों के चुनाव के दरम्यान कोरोना के नियमों की धज्जियां उड़ाई गईं। उसके परिणाम के अंदाज़ा से जिन तरह लोग अनभिज्ञ रहे, उसने भारत की कमर तोड़कर रख दी। यही वजह रही है कि भारत जैसे देश के कई हाईकोर्टों ने इस पर संज्ञान लिया और केंद्र सहित कई प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों को अपने लपेटे में लेते हुए उनकी फ़ज़ीहत कर डाली। लेकिन राजनीतिज्ञों की चमड़ी इतनी मोटी हो गई है कि अब अदालत की चाबूक का भी उसपर कोई असर नहीं होता है। वे बेधड़क अपनी अपंग सोच के सहारे सूबे और देश की जनता की ज़िंदगी के साथ खेलते जा रहे हैं।
आख़िर कब तक यह देश हिंदू-मुसलमान के नाम पर चलता रहेगा? कब तक देश की जनता हिंदू-मुसलमान की लड़ाई लड़कर अपने आपको समृद्ध होने से रोकता रहेगा? इस देश का युवा वर्ग अब इस पर गहराई से सोचे। क्योंकि अब उनके पुर्वजों और मौजूदा उनके बाप-दादाओं के पास कुछ बचने ही नहीं दिया गया। उनके पसीने की सारी कमाई को कोरोना की खाई में फेंक दिया गया है। अब वे ख़ुद मोहताज हो गए हैं। अभी भी समय है। युवा जागें और देश को समृद्ध करने में अपनी भूमिका अदा करें। वे खुलकर कहें कि देश का हर नागरिक समान है। एक तरह का है। सब बराबर है। हमें किसी से कोई नफरत नहीं। सबकी आस्था अपनी व्यक्तिगत है, जैसी मेरी अपनी आस्था है। और हम धर्म, मज़हब और अगड़े-पिछड़े की झंझटों से उबरना चाहते हैं। हमें हिंदू-मुस्लिम की लड़ाई नहीं चाहिए। अगर यह स्वर देश का स्वर बन जाता है तो फिर भारत को कोरोना से हुए नुक़सान की भरपाई आसानी से कर पाने में कोई भी स्थिति और परिस्थिति रोक नहीं पाएगी। भारत बहुत जल्दी फिर से सोने का चिड़िया बनकर विश्व के पटल पर होगा।