पोस्टमार्टम गोडसे के प्रेत का

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ए आर आज़ाद

गोडसे उस समय हिन्दू महासभा में आए थे जब हिन्दू महासभा के अध्यक्ष वीर सावरकर थे। जब गोडसे हिन्दुओं को संगठित करने के लिए एक अख़बार की योजना लेकर गए तब उन्हें सावरकर से न सि़र्फ सहानुभूति मिली बल्कि पैसे भी मिले। सावरकर ने उन्हें कुछ शर्तों के साथ 75 रुपए दिए। वह शर्त क्या थी इसका खुलासा नाथूराम गोडसे ने नहीं किया है। यही कारण है कि अदालत के समक्ष अपने ह़क में पढ़े गए 150 बयानों में कहीं एकरुपता की कमी दिखती है तो कहीं अभियोजक पक्ष का यह दावा मज़बूत होता हुआ दिखता है कि वीर सावरकर ने अगर गोडसे को प्रोत्साहित नहीं किया होता तो वह गांधी की हत्या नहीं कर पाते।

क्या देश आज़ादी के 72 साल बाद एक ऐसे दौर में पहुंच गया है, जहां उसे अब गांधी और गोडसे के बीच महानता को लेकर चुनाव करना है? नौजवान पीढ़ी के लिए सबसे ऐतिहासिक संकट है कि वे ज़माने से सुनते-गुनते, पढ़ते आ रहे इतिहास को कैसे भूल जाए? गांधी के हत्यारे को देशप्रेमी के तौर पर स्वीकार कर राष्ट्रभक्त मानते हुए महामंडित कैसे करे? लेकिन ऐसा ही कुछ  हो रहा है।
30 जनवरी की रात अलीगढ़ के पार्क थाना क्षेत्र के नौरंगाबाद इला़के में महात्मा गांधी के पुतले को गोली मारी गई और फिर उसे गद्दार और न जाने क्या-क्या संबोधन कर उनके पुतले का दहन किया गया। यह दृश्य तेज़ी से सोशल मीडिया पर वायरल हुआ। इस दृश्य को जिसने भी देखा उसके रौंगटे खड़े हो गए। बेहतर शासन की दावा करने वाली योगी सरकार गोली मारने की आरोपी ऑल इंडिया हिन्दू महासभा की राष्ट्रीय महासचिव पूजा शकुन पांडेय को ़फरार होने दिया और तीन लोगों को गिरफ़्तार कर इस मामले को ऱफा-द़फा कर दिया। हिन्दू महासभा के कार्यालय के बाहर हुए इस जघन्य अपराध को दोहराने का दुस्साहस किया गया। जिसकी चारो ओर से निंदा अपेक्षित है।


यह कोई पहली घटना नहीं है।
हर वर्ष इस तरह की घटनाएं देश के सामर्ने ंज़दा की जाती रही हैं। देश में ऐसा माहौल तैयार किया जा रहा है जिसमें न सि़र्फ गोडसे को सही ़करार दिए जाने की कोशिश की जा रही है बल्कि उनके विचारों को भी एक धारा में शामिल कर जबरन थोपने की कोशिश शुरू हो गई है। इस रणनीति में वे सारे संगठन शामिल हैं जो खुद को हिन्दुत्व का सबसे बड़ा ठेकेदार समझते हैं। गोडसे को लेकर हिन्दू संगठनों के बीच भी श्रेय लेने की अंदरखाने लड़ाई शुरू हो चुकी है। इस लड़ाई में सबसे ज़्यादा हिन्दू महासभा कूद पड़ा है क्योंकि गोडसे हिन्दू महासभा के अध्यक्ष भी थे।
नाथूराम गोडसे ने उस गांधी की हत्या की जिसे पूरा देश राष्ट्रपिता कहता है और जिसकी पूरी दुनिया लोहा मानती रही है। अब देश और देश के बाहर नाथूराम गोडसे को एक हत्यारा ही जाना, माना और समझा गया है। सवाल उठता है कि जब कल तक संघ, विहिप, बजरंग दल एवं हिन्दू महासभा की गोडसे को लेकर दी जा रही दलीलों को देश ़खारिज करता रहा है तो आज देश की जनता कैसे नाथूराम गोडसे को राष्ट्रभक्त और राष्ट्रपिता को अंग्रेज़ों का एजेंट मान ले। नाथूराम गोडसे का गांधी को लेकर यही विचार था।


सवाल तो तब और खड़े हो जाते हैं जब भाजपा के सांसद गांधी के हत्यारे को राष्ट्रभक्त तस्लीम करे     और पूरे देश में बवाल मचने के बाद अपने बयान से पलटी खाए। लेकिन जिस तरह से एक पक्के निशानेबाज़ का तीर अपने निर्धारित लक्ष्य को भेद देता है, ठीक उसी प्रकार से साक्षी महाराज के तीर निशाने पर लगे।
2015 की इस घटना से अखिल भारतीय हिन्दू महासभा को बल मिला और जो लोग उनकी प्रतिमा के ज़रिए राजनीति करना चाहते थे, उन्हें गोडसे की विचारधारा को स्थापित करने का भी एक अचूक मौ़का मिल गया। बिना अवसर गंवाए देश में एक नई बहस छिड़ गई। कल तक जो लोग गोडसे को लेकर सहमे अंदाज़ में बात किया करते थे, अब 56 इंच का सीना सामने कर बात कर रहे हैं। अखिल भारतीय हिन्दू महासभा का तो यहां तक मानना है कि अगर आज गांधी और गोडसे में जनमत संग्रह करा लिया जाए तो गांधी को 10 फीसद वोट मिलेंगे और 90 फीसद वोट नाथूराम गोडसे के पक्ष में जाएंगे। अगर इनकी बातों में सच्चाई है तो फिर क्या देश विचारधारा के स्तर पर दिवालिएपन की हद से गुज़रने को तैयार हो चुका है? या फिर नौजवानों में हिन्दुत्व का नशा अ़फीम सा असर करने लगा है? देश के सामने गांधी की छवि को जितना भी बिगाड़ने की कोशिश की जाय गांधी का ़कद उतना ही बड़ा बनकर उभरेगा। न तो गांधी को देश भूल सकता है और न ही दुनिया। लेकिन यह सवाल तो उठता है कि क्या गोडसे की विचारधारा जो तेज़ी के साथ उभर रही है उतनी ही तेज़ी के साथ ़खत्म भी हो जाएगी? इतना तो तय है कि जिस रणनीति के तहत यह सब हो रहा है, गोडसे की विचारधारा को जड़ जमाने का प्रयास इतनी आसानी से विफल नहीं होगा। फिर एक सवाल है कि इसका प्रतिफल क्या होगा? इसे जानने के लिए पहले यह जानना होगा कि गोडसे ने गांधी की हत्या क्यों की? और हत्या के बाद उन्होंने अपराधबोध के बजाय सीना ठोक कर गांधी की ख़ामियों को क्यों गिनाया?
दरअसल पेशे से पत्रकार गोडसे की दिलचस्पी हिन्दुत्व-दर्शन में थी। उन्होंने संघ की शाखा से अपना सामाजिक जीवन शुरू किया। उन्होंने अदालत के सामने जो 150 बिन्दु रखे उसमें, उन्होंने अपने बारे में सा़फ तौर पर कहा कि कांग्रेस ने जिस समय असहयोग आंदोलन शुरू किया, उसी समय उन्होंने सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया। उन्होंने ये भी स्वीकार किया कि उन पर स्वयं सेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगवार के भाषणों का प्रभाव पड़ा। और यही कारण था कि वे स्वयंसेवक बने।
दरअसल गोडसे महाराष्ट्र के वैसे युवकों में से थे जिन्होंने संघ बनने के पहले से ही उस विचारधारा को अपना लिया था। हालांकि यहां भी गोडसे बहुत लंबा नहीं टिके और संघ को अलविदा कहकर हिन्दू महासभा की शरण में चले गए। गोडसे ने जज के सामने जितनी बातें बताई, उसमें ये भी कहा कि 1935 में जब हिन्दू महासभा ने हैदराबाद में आंदोलन किया तो पहला जत्था लेकर वहां गए। गोडसे क्रांतिकारी युवकों की भूमिका में रहे। उन्होंने हैदराबाद के बाद अपना दूसरा क्रांतिकारी ़कदम भी दिखाया। जब 1943 में हिन्दू महासभा के भागलपुर में प्रस्तावित अधिवेशन पर बिहार सरकार ने पाबंदी लगा दी तो गोडसे ने उस फैसले का उल्लंघन करने का निर्णय लिया और एक महीने तक भूमिगत होकर अपने अधिवेशन को अंजाम तक पहुंचाया।
हालांकि कई बार गोडसे ने जज के सामने स्वीकार किया है कि उन्हें गांधी जी से कोई शत्रु-भाव नहीं था। अदालत में उन्होंने साफ कहा कि लोग कहते हैं कि पाकिस्तान योजना में गांधी जी का मन शुद्ध था लेकिन मैं बताना चाहता हूं कि मेरे मन में देशप्रेम के अलावा कुछ न था। कुछ लोग कहते हैं कि पाकिस्तान नहीं बनता तो आज़ादी नहीं मिलती। मैं इस विचार को ठीक नहीं मिानता।
नाथूराम गोडसे को गांधी की हत्या का कोई मलाल नहीं था। न तो उनके चेहरे पर कोई शिकन थी और न ही पाप का आत्म-बोध। वो आज़ादी के योद्धा की तरह तर्क देते रहे। मानो उन्होंने स्वाधीनता के लिए किसी अंग्रज़ वायसराय की हत्या की हो, राष्ट्रपिता की नहीं। उन्होंने कहा कि यदि देशभक्ति पाप है तो मैंने पाप किया है। यदि प्रशंसनीय है तो मैं अपने आपको उस प्रशंसा का अधिकारी समझता हूं। मुझे  विश्वास है कि मनुष्यों द्वारा स्थापित न्यायालय के ऊपर कोई न्यायालय हो तो उसमें मेरे काम को अपराध नहीं समझा जाएगा। मैंने देश व जाति की भलाई के लिए यह काम किया। मैंने उस व्यक्ति पर गोली चलाई जिसकी नीति से हिन्दुओं पर घोर संकट आए, हिन्दू नष्ट हुए।
हालांकि नाथूराम गोडसे गांधी के प्रशंसक रहे हैं। इसका उल्लेख उन्होंने कई अवसरों पर किया है। उन्होंने कहा कि मैं मानता हूं कि गांधी जी ने देश के लिए बहुत कष्ट उठाए, जिसके कारण मैं उनकी सेवा के प्रति एवं उनके प्रति नतमस्तक हूं। किंतु देश के इस सेवक को भी जनता को धोखा देकर मातृभूमि के विभाजन का अधिकार नहीं था। सरकार ने गांधी के अनशन के कारण पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए न देने का अपना निर्णय बदल दिया। तब मुझे विश्वास हो गया कि गांधी जी की पाकिस्तान परस्ती के आगे जनता के मत का कोई महत्व नहीं।
दरअसल 9 जनवरी, 1948 को मंत्रिमंडल ने फैसला लिया था कि पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए नहीं दिए जाएंगे। इस फैसले से गांधी जी आहत हो गए थे। नतीजतन 13 जनवरी को गांधी जी ने अनशन शुरू कर दिया और बाध्य होकर मंत्रिमंडल को अपना फैसला बदलना पड़ा। यही चीज़ गोडसे को इतनी नागवार गुज़री कि उन्होंने गांधी जी की जान ले ली।
इस बात की पुष्टि माउण्टवेटन के बाद भारत के वायसराय बने राजगोपालाचारी की पुस्तक ‘गांधी जी की शिक्षा और उनका दर्शन’ से भी होती है। राजगोपालाचारी ने लिखा है कि सरदार पटेल के शब्द थे, ‘‘गांधी जी पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए देने की ज़िद कर बैठे। नतीजतन उन्हें इसका ख़मियाजा जान गंवा कर चुकाना पड़ा।’’
गांधी जी को गोडसे ने जो भी समझा हो, लेकिन गांधी अपनी जगह दुरुस्त थे। दुनिया को सत्य और अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले गांधी का मानना था कि भारत के बंटवारे में दोनों ओर से हुए अनुबंध का पालन दोनों देशों को करना चाहिए।
भारत-पाक विभाजन की त्रासदी से भी गोडसे आक्रोशित थे। अपनी गवाही में नाथूराम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे ने कहा था कि गांधी जी को राजनीतिक मंच से हटाए बिना हिन्दुत्व का संरक्षण नहीं हो सकेगा। इसलिए गांधी जी का वध करने का निर्णय लिया गया था। उनका पहला प्रयास विफल हुआ किंतु दूसरे प्रयास में उन्हें सफलता मिली। गोपाल गोडसे ने आयोग के सामने यहां तक कहा कि अगर नाथूराम, आपटे और उनके साथी हत्या करने में विफल होकर गिरफ़्तार भी हो जाते फिर भी गांधी जी बच नहीं सकते थे।
गांधी जी की हत्या करने की मंशा को साकार करने के लिए नाथूराम गोडसे ने पूरी योजना तैयार कर रखी थी। गांधी हत्या की त़फतीश करने में जुटे आयोग के सामने गवाही देते हुए गांधी जी की पौत्री मनुबेन गांधी ने खुलासा किया था कि 30 जनवरी, 1948 को दोपहर बारह बजे नाथूराम गोडसे बिरला भवन आया। उसे किसी ने इसलिए नहीं रोका क्योंकि लोग आते-जाते रहते थे। शक की कोई वजह नहीं थी। इसलिए कि गांधी जी जहां रहते थे, खाते-पीते थे और सोते थे, उस जगह को देखने की लोगों में उन दिनों काफी ललक थी। जब नाथूराम गोडसे पहुंचा, उस समय गांधी जी धूप का लुत़्फ उठा रहे थे। लेकिन उस समय उसने उन्हें गोली नहीं मारी। संध्याकाल गोली मारी।
जिस समय नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या की उस समय उसकी उम्र 37 वर्ष की थी। यानी नौजवान। जवानी का जोश था लेकिन वह हिन्दू राष्ट्र के संपादक भी थे। होश भी होना चाहिए था। तब सवाल उठता है कि अगर किसी को किसी का काम पसंद नहीं आए और लगे कि वह देशहित में नहीं है तो क्या उसे मौत के घाट उतार देना चाहिए?
बहरहाल अदालत के सामने अवैध रूप से पिस्तौल रखने का जुर्म नाथूराम गोडसे ने स्वीकार किया। उसने ये भी स्वीकार किया कि यह पिस्तौल उसने दिल्ली से ही ख़रीदी थी। उसने बताया कि दिल्ली में एक शरणार्थी ने मुझे एक पिस्तौल दिखाई। वह पसंद आ गई और मैंने उसे ख़रीद लिया और इसी पिस्तौल से मैंने गांधी जी को अपना निशाना बनाया।
नाथूराम गोडसे ने अपने बयान में सावरकर को इस कांड का प्रेरक मानने से इंकार किया। उन्होंने अदालत के सामने साफ़ कर दिया कि मेरे संदर्भ में सावरकर के मार्गदर्शन की बात कहना मेरी योग्यता का अपमान है। मैं किसी के हाथ की कठपुतली नहीं हो सकता।
उन्होंने वीर सावरकर को अपना प्रेरक मानने से तो इंकार किया लेकिन दादाभाई नौरौजी, विवेकानंद, गोपाल कृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक के विचार व साहित्य को अपने माथे का तिलक बताया। इसके साथ ही यह भी स्वीकार किया कि उसने सबसे ज़्यादा ध्यान वीर सावरकर और गांधी के साहित्य पर ही केंद्रित किया। और कहा कि पिछले 50 वर्षों में भारत इन्हीं दो महापुरुषों के सिद्धांतों से प्रभावित रहा है।
गोडसे उस समय हिन्दू महासभा में आए थे जब हिन्दू महासभा के अध्यक्ष वीर सावरकर थे। जब गोडसे हिन्दुओं को संगठित करने के लिए एक अख़बार की योजना लेकर गए तब उन्हें सावरकर से न सि़र्फ सहानुभूति मिली बल्कि पैसे भी मिले। सावरकर ने उन्हें कुछ शर्तों के साथ 75 रुपए दिए। वह शर्त क्या थी इसका खुलासा नाथूराम गोडसे ने नहीं किया है। यही कारण है कि अदालत के समक्ष अपने ह़क में पढ़े गए 150 बयानों में कहीं एकरुपता की कमी दिखती है तो कहीं अभियोजक पक्ष का यह दावा मज़बूत होता हुआ दिखता है कि वीर सावरकर ने अगर गोडसे को प्रोत्साहित नहीं किया होता तो वह गांधी की हत्या नहीं कर पाते।
नाथूराम गोडसे को गांधी जी का मुस्लिम-प्रेम कभी रास नहीं आया। वो मुस्लिम लीग को बर्दाश्त करने के पक्ष में नहीं थे। गांधी जी की ओर से जिन्ना को क़ायदे आज़म या जिन्ना भाई कहने पर भी उनका ़खून खौल उठता था। गोडसे का आरोप था कि मुस्लिम लीग को अंग्रेज़ों से भी सहायता मिलती थी और गांधी जी का भी समर्थन प्राप्त था। नतीजतन देश का बंटवारा हुआ। पांच करोड़ मुसलमान हमारे देश के अलग हो गए। 15 करोड़ आदमी बेघर हो गए जिनमें 40 लाख मुसलमान भी थे। इतना भयानक हादसा होने के बावजूद गांधी जी अपनी नीति पर अटल थे। यह देखकर ख़ून खौल रहा था। गोडसे का मानना था कि गांधी जी ने वो काम किया जो काम अंग्रेज़ हिन्दू-मुसलमान में फूट डालकर करना चाहते थे। उन्होंने भारत का विभाजन करने में अंग्रेज़ों की सहायता की।
गोडसे ने अदालत के सामने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि 32 वर्षों से गांधी जी मुसलमानों के पक्ष में काम कर रहे थे। अदालत के सामने गोडसे ने गांधी हत्या को लेकर जो दलीलें दीं उसमें राजभाषा का मुद्दा भी शामिल था। उन्हें गांधी के हिन्दुस्तानी ज़ुबान का प्रस्ताव भी स्वीकार नहीं था। गोडसे का तर्क था कि राजभाषा का पहला अधिकार हिन्दी का बनता है। लेकिन उन्होंने हिन्दुस्तानी ज़ुबान को प्रमुखता दी।  गोडसे को महामंडित करने को लेकर सि़र्फ हिन्दू महासभा बेचैन और उग्र नहीं है। भाजपा भी है और संघ भी। ऐसे विवादास्पद मुद्दों की ज़िम्मेदारियां बांट रखी गई है। भीतरी मंशा को जनता के बीच पहुंचाने का काम साक्षी महाराज जैसे नेता कर रहे हैं। कुछ ऐसे ही विवादास्पद मुद्दों को कल तक भाजपा सांसद और अब यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उठाते रहे हैं। उमा भारती और साध्वी ऋतम्बरा का दौर विवादों में भले ही ख़त्म हो गया हो लेकिन उनकी जगह निरंजन ज्योति का पर्दापन हो गया है।
इनके बयान से उमा भारती और साध्वी ऋतम्बरा सरीखे नेताओं की कमी पूरी हो रही है।
गांधी को लेकर गोडसे की सोच का पता संघ के कुछ बयानों से खुद लग जाता है। 24 अक्तूबर, 2014 केरल से प्रकाशित संघ के मुखपत्र ‘केसरी’ में संघ से जुड़े भाजपा नेता बी गोपाल कृष्णन के लेख से संघ ने अपना पल्ला झाड़ लिया है। संघ के राष्ट्रीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने एक बयान जारी कर यह साफ किया कि बी गोपाल कृष्णन की उस सोच से संघ सहमत नहीं, जिसमें उन्होंने लिखा है कि गोडसे को महात्मा गांधी के बजाय पंडित जवाहर लाल नेहरू को निशाना बनाना चाहिए था जो कथित तौर पर देश विभाजन के लिए ज़िम्मेदार थे।
संघ की यह प्रतिक्रिया ़खुद सवालों के घेरे में है। इस प्रतिक्रया का निहितार्थ पाठक अपने-अपने हिसाब से ़खुद लगा सकते हैं।
भाजपा के अभी के सहयोगी और अटल सरकार में भी मंत्री रहे लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष राम बिलास पासवान ने गोडसे की कसाब से तुलना की थी। यह बात 21 नवम्बर, 2012 की है। उन्होंने कहा था कि मुंबई विस्फोट का आरोपी क़साब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हत्यारे से कम थोड़े ही है। उनसे जब पत्रकारों ने पूछा था कि वे राष्ट्रपिता के हत्यारे गोडसे और ़कसाब को क्या एक जैसा समझते हैं तो उन्होंने पलटकर जवाब दिया था कि क्या आप गोडसे को बड़ा क्रांतिकारी समझते हैं?
गोडसे को गांधी की तुलना में महान बनाने की शुरूआत भले ही हो चुकी लेकिन इसकी फसल काटने का मौ़का हिन्दू संगठनों को नहीं मिलेगा, क्योंकि जिस ज़मीन पर वो खेती करना चाह रहे हैं वह बंजर भूमि है। और बंजर भूमि में फसलें लहलहाया नहीं करतीं। गोडसे को लेकर महीमामंडित करने का स्वप्न उसी तरह दीवास्वप्न बना रहेगा जैसे पिछले 71 सालों से अबतक बना हुआ है। देश की जनता प्रौढ़ हो चुकी है और किसी भी सूरत में देश और दुनिया की नज़रों में गांधी की छवि को धूमिल नहीं होने देगी। गोडसे की गांधी से तुलना को लेकर भी गांधी संगठनों और इससे जुड़ी संस्थाओं में काफी रोष है। इन संगठनों को इस बात पर सबसे ज़्यादा ऐतराज़ है कि गोडसे को गांधी के साथ कैसे जोड़ा जा सकता है? बापू के हत्यारे को महामंडित करना गांधीवादियों को आक्रोशित कर रहा है। वह इस बात से हलकान हैं कि देश में ज़हर घोलने वालों ने अब गांधी को भी नहीं बख़्शा।
बीबीसी ने विश्व के महान व्यक्तित्वों का चयन किया। उसमें पहला नाम गांधी और दूसरा नाम आइस्टिन का था। साहित्य के लिए नोबेल विजेता रविन्द्र नाथ टैगोर ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को एशिया का ज्योतिपूंज बताया था। दक्षिण अफ्ऱीका के राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला ने गांधी को अपना प्रेरक बताया और गांधी के रास्ते चलकर संघर्ष करने के कारण ही वहां उन्हें दक्षिण अफ्ऱीका  के गांधी के नाम से जाना जाने लगा। अमेरिका के ढाई सौ साल के इतिहास को पलटने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओवामा ने गांधी को अपना प्रेरक बताया। जब उसी ओबामा से भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मिलकर लौटे थे तो भाजपा ने जश्न मनाया और कामयाबी का ढोल पिटा था।
अब तो गांधी की प्रासंगिकता को समाप्त करने की साज़िश शुरू हो गई है। नोट और सिक्कों पर गांधी की तस्वीरों पर भी अंगुली उठाई जाने लगी है। यह सारे सवाल कुतर्क के दायरे में है जिसका न कोई ओर है न छोर।
गांधी की अहिंसा नीति का विरोध करने वाले गोडसे अहिंसा की ता़कत को शायद नहीं समझ पाए थे। गांधी ने शायद ऐसी ही शक्तियों को समझाने के लिए ‘अंग्रेज़ भारत छोड़ो’ का नारा दिया था। नतीजतन अंग्रेज़ों ने हिंसा की सीमा पार कर दी थी। अहिंसा के सत्याग्रहियों को मृत्यु के घाट उतार दिया। बबर्रता की जितनी भी सीमाएं हो सकती हैं उसे अंग्रेज़ों ने लांघा। फिर भी गांधी जी कहां झुकने वाले थे। गांधी की अहिंसा ने हिंसा पर विजय पा ली। अंग्रज़ों को थक हारकर भारत को स्वतंत्रता की बेड़ी से आज़ाद करना ही पड़ा।
गांधी ने सत्य, अहिंसा और त्याग के आधार पर आज़ादी हासिल की थी। हालांकि बाद में गांधी के मूल मंत्र को ही देश से ़खत्म कर दिया गया। इसके लिए कल तक कांग्रेस ज़िम्मेदार थी तो आज गोडसे की विचारधारा के बहाने हिन्दू संगठन बापू की प्रासंगिकता को ़खत्म करने के लिए घात लगाए है।
हिन्दुत्व के ठिकेदार कहलाने वाले संगठनों का मानना है कि झूठ को इतनी बार बोलो कि झूठ सच लगने लगे। यह दर्शन सियासत में बड़े काम की चीज़ साबित हुई है। गांधीवादियों को दुख तो इस बात का है कि हत्यारे को महामंडित करने के लिए गांधी को ही बलि का बकरा बनाया गया है। उनकी छवि और देशवासियों के मन में बैठी स्मृतियों को खरोंच-खरोंच कर मिटाने का प्रयत्न किया जा रहा है।
गांधी जी के प्रिय भजन से हम अपनी बात समाप्त करना चाहते हैं।-
रघुपति राघव राजा राम
पतित पावन सीताराम
ईश्वर अल्लाह तेरो नाम।
सबको सन्मति दे भगवान।।

गांधी जी का यह प्रिय भजन उस वक़्त भी लोगों की ज़ुबान पर था और आज भी लोग इसे श्रद्धा के साथ गुनगुनाते हैं। यहां राम की स्तुति होती है। ईश्वर के साथ अल्लाह को भी जोड़ा गया है। भारत को धर्मनिरपेक्षता के सूत्र में बांधने की यह अनोखी मिसाल है। धर्म निरपेक्षता इस देश के संविधान की मूल आत्मा है। आज़ादी की लड़ाई हो या देश पर बाहरी संकट, भारतवासियों ने जाति और संप्रदाय से ऊपर उठकर उसका मु़काबला किया है। देश की आज़ादी उसी का प्रतिफल है। भारत की स्वतंत्रता में किसी के योगदान को तराज़ू पर बटखरे रखकर तौला नहीं जा सकता। इसे स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है कि देश की आज़ादी भारत के सपूतों के कारण मिली। आज़ादी के लिए मर मिटने वालों में भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद थे तो अश़फाक उल्लाह ़खाँ भी थे। किसी भी संप्रदाय विशेष का दमन करना भारतीय परंपरा नहीं है। गांधी जी भारतीय परंपरा से परिचित थे। उनकी सोच दो सौ साल आगे की थी और उस सोच पर अंगुली उठाना भी अक्षम्य है। उनका कारनामा कोई स्लेट पर अंकित नहीं है जिसे जब चाहे मिटा दिया जाए। हृदय पर अंकित श्रद्धा को कोई भी रणनीति समाप्त नहीं कर सकती। हमारे सामने रावण का भी उदाहरण है और राम का भी। और गांधी तो स्वयं राम के सबसे बड़े उपासक थे। इसलिए गोडसे की गोली खाने के बाद उनके मुख से जो शब्द निकला वह था-हे राम! और तब से अब तक गांधी जी की प्रासंगिकता समय के साथ चलती रही है। देश के साथ चलती रही है और दुनिया के साथ ़कदम ताल करती रही है। तभी तो आज भी दुनिया यही कहती है- ‘साबरमति के संत तूने कर दिया कमाल…!’