किसान, सरकार और क़ानून

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राजीव रंजन नाग

इस समय देश तीन नए क़ानूनों को लेकर ऊहापोह की स्थिति में है। सरकार और किसान दोनों में द्वंद्व है। किसानों की कशमकश, गोमगो और उसे दिशा प्रदान करने के मामले में सरकार असंवेदनशील दिख रही है। नतीजे में जनमानस के बीच पै़गाम यही जा रहा है कि सरकार में मामले को निपटाने की निपुणता और दिशा देने की क्षमता वैसी नहीं है, जैसी एक लोकतांत्रिक सरकार में क्षमता होती है। देश के सामने यक्ष प्रश्न यह है कि इस तीन नए कृषि ़कानून से किसानों का किस तरह से भला हो सकता है? क्योंकि इन तीनों नए ़कानूनों में किसान के लिए जीने का सारा रास्ता बंद होता दीखता है। कॉरपोरेट और पूंजीपतियों के लिए सारे रास्ते तय कर दिए गए हैं या सारे रास्ते सुलभ कराए गए हैं। इस क़ानून से ऐसा ही आभास होता है। सरकार शायद इस विसंगतियों पर ध्यान देने से बच रही है। या अपनी इस चूक को किसी विवशता में स्वीकार नहीं करने के लिए बाध्य है। लाज़मी है वह अपना दर्ज विरोध करे। सरकार ने किसानों को क़ानून के इस खूंटे में बांधकर कॉरपोरेट और पूंजीपतियों के हाथों उसे दुहने की जो सरकारी छूट का जो भय साल रहा है, उसी डर से उस ़कानून के खूंटे को ही उखाड़ फेंककर अपने जीने का रास्ता तलाश कर रहा है। दरअसल सरकार कृषि के क्षेत्र में भी अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त होना चाहती है। उसे बाज़ार के हवाले करके मंडी प्रथा को समाप्त कर दयनीय स्थिति में लाना चाहती है। दरअसल सरकार न्यूनतम समर्थन मू्ल्य यानी एमएसपी को ही द़फन कर देना चाहती है। मंडी ़खत्म होगी तो किसान ़खत्म हो जाएंगे। क्योंकि मंडियां ही एमएसपी तय करती है। जब मंडियां ़खत्म होंगी तो या तो सही दाम मिलने का वो इंतज़ार करेंगे या फिर औने-पौने दामों में अपने अनाज को बेचकर दुर्दशा के शिकार होंगे। इसकी साफ़ वजह है कि किसानों के पास अपनी फसलों को ज़्यादा दिनों तक सहेजकर व संभालकर रखने की भंडारण क्षमता नहीं है।

1911 की जनगणना देश के किसानों के बारे में बताती है कि इस देश में 11.9 करोड़ किसानों के पास ही ़खुद की ज़मीन है। और 14.4 करोड़ इस देश में भूमिहीन किसान है। यह भूमिहीन वो किसान हैं जो खेती को बटाई पर लेकर अपने कृषि व्यवस्था के ज़रिए देश और समाज के लिए अन्नदाता बने हुए हैं। ज़ाहिर है यह ़कानून 14.4 करोड़ भूमिहीन किसानों के भविष्य पर भी कुठाराघात करने जा रहा है। सरकार का मंडियों को लेकर जो भी नज़रिया है वह दुरुस्त है। लेकिन इस क़ानून के ज़रिए मंडियों पर नकेल कसने की ज़रूरत थी। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से किसानों पर ही नकेल कस दिया गया। मंडियों की ़खामियां जग ज़ाहिर है। इसकी वजह और इसकी तह में ज़िम्मेदारी भी सरकार की ही बनती है। दरअसल देश में ज़रूरत भर मंडियां नहीं हैं। किसानों की ज़रूरतों पर कभी ठीक से विचार ही नहीं किया गया है। और किसानों ने भी कभी सरकार और मंडियों के ख़िला़फ अपनी उग्रता और छटपटाहट नहीं दिखाई। नतीजतन सरकार भी टीवी, रेडियो और अ़खबारों के ज़रिए किसानों के प्रति अपनी भावना ज़ाहिर करते हुए किसानों को सुख का एहसास कराती रही है। जब कोई बात जीवन और मरण पर आ जाती है तो किसानों के धैर्य का बीज प्रस्फुटित, पल्लवित और पुष्पित होने लगता है। तब उसमें उग्रता और सरकार से मोहभंग होने की क्रिया आंदोलन के रूप में प्रतिक्रिया बन जाती है। जैसा कि अभी हो रहा है। दुर्भाग्य देखिए किसानों की शुभचिंतक सरकार देश में नई मंडिया नहीं खोल सकी है। इतने बड़े और विशाल देश में महज़ सात हज़ार मंडिया हैं जबकि देश के किसानों को छह से सात गुणा और अधिक मंडियों की ज़रूरत है। कहने का ़गरज़ यह है कि इस समय देश को 42 हज़ार से लेकर 50 हज़ार तक मंडियों की ज़रूरत है। इसलिए मंडी व्यवस्था को ़खत्म करने के बजाय सरकार को नई मंडियों की स्थापना पर ध्यान देने की ज़रूरत है। कोई भी सरकार किसी भी संस्था में उत्पन्न कमियों को दूर करने की जगह, उस संस्थान को ़खत्म करने की योजना कैसे बना सकती है?

अब सरकार मंडी की ख़ामियों को सामने रखकर नए ़कानूनों के ज़रिए मंडी को ़खत्म करने का जो जोखिम उठाया है, वह साहसिक क़दम नहीं बल्कि अदूरदर्शिता वाला फैसला ही कहा जा सकता है। सरकार कहती है कि इस नए ़कानून से किसानों का भला होगा। यानी जब देश से एपीएमसी क़ानून ख़त्म हो जाएगा तो देश के किसान तर जाएंगे, जीवंत हो उठेंगे!

सरकार के इस उद्बोधन की पड़ताल करने के बाद सा़फ हो जाता है कि सरकार ने ये तीनों ़कानून किसानों के हित में नहीं बनाए हैं बल्कि ये तीनों क़ानून कॉरपोरेड और पूंजीपतियों के लिए ‘वटवृक्ष’ बना दिए गए हैं जिनके ज़रिए कॉरपोरेट और पूंजीपति को इस ‘वटवृक्ष’ के नीचे संरक्षण मिल सके। ऐसा इसलिए कि बीजेपी बिहार ने अपनी एनडीए शासनकाल में इसका परीक्षण कर लिया है। त़करीबन 2006 में बिहार से एपीएमसी ़कानून को किसान विरोधी बताकर ख़त्म कर दिया गया था। आज 15 साल गुज़र गए। बिहार के किसानों के हालात संभले हैं या बद से बदतर हुए हैं इससे सारे लोग वाकि़फ़ हैं। इस फैसले का काला पक्ष यह सामने आया कि आज जिस ़कानून को सरकार क्रांतिकारी बता रही है वही क़ानून बिहार  में एक युग से ज़्यादा रहने के बावजूद इस सूबा को सबसे कम कृषि आय वाले राज्यों में अव्वल बना दिया है।

सरकार के प्रस्तावित और पारित और विवादित नए क़ानून में निजी कंपनियों और किसानों के बीच समझौते वाली खेती का मार्ग प्रशस्त किया गया है। आप इसे कांट्रेक्ट फ़ार्मिंग का नाम भी दे सकते हैं। इस ़कानून के तहत किसान की ज़मीन को कोई भी निजी कंपनियां, ठेकेदार या कॉरपोरेट घराना एक निर्धारित राशि पर लेगा और फसल के बाद उस उत्पादन को अपने हिसाब से बाज़ार में बेचेगा, उसका मूल्य तय करेगा। ज़ाहिर इससे किसानों को सि़र्फ आर्थिक नु़कसान ही नहीं होगा बल्कि वे ख़ुद को बंधुआ मज़दूर और दोयम दर्जे के किसान कहलाने को विवश होंगे।

यही वजह है कि किसान, दोयम दर्जे के किसान बनने से गुरेज़ कर रहे हैं। अपमानित महसूस कर रहे हैं और धरती पुत्र और अन्नदाता के ताज को छीनने के सरकारी प्रयास से भयभीत हैं, डरे हुए हैं, सहमे हुए हैं और मदद के लिए देश के सामने हाथ फैलाकर सड़कों पर अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे हैं ताकि कोई तो सुनें उनकी आवाज़। कोई तो समझे उनका दर्द। कोई तो निभाए आगे आकर देश का ़फर्ज़। और कोई तो हकीम बनकर दूर करे उनका यह मर्ज़।