पत्रकारिता दिवस के बहाने देश की हिंदी पत्रकारिता को समझें

623

ए आर आज़ाद

हिंदी-पत्रकारिता का प्रादुर्भाव 18वीं शताब्दी से मानी जाती है। तक़रीबन आज से 195-96 साल पहले यानी 1826 में हिंदी-पत्रकारिता की शुरुआत हुई थी। इसी साल 1826 में पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने एक अखबार का प्रकाशन किया था। यही प्रकाशित उतंड मार्तंड हिंदी का पहला अख़बार साबित हुआ। इसे उन्होंने तत्कालीन राजधानी कलकत्ता से निकाला था। देश का पहला हंदी-अख़बार  उतंड मार्तंड सरकारी तमाशा और जनसहयोग के अभाव में आखिरकार 79 अंक निकालकर बंद भी हो गया। आज भी पत्रकारिता ख़ासकर हिंदी-पत्रकारिता कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में दम तोड़ते दिखते नज़र आ रहे हैं। इसका मूल कारण भी है।  दरअसल देश के बीस बड़े घराने के मीडिया ने हिंदी-पत्रकारिता पर क़ब्ज़ा कर लिया है। यानी उन्होने देश के सामने एक ऐसी बड़ी लकीर खींच दी है कि लोग और सरकार के समझ में बात यह गहरे तौर पर बैठ गई है कि यही असली मीडिया है। और इसी के ज़रिए संपूर्ण राष्ट्र में ख़बरें पहुंचती हैं। और पहुंच सकती हैं। इसी सोच ने देश का बेड़ा ग़र्क़ करके रख दिया है। नतीजे में सरकार ने भी इसी बीस बड़े मीडिया घराने को देश के विज्ञापन का 99 फीसदी तक का बजट इनपर क़ुर्बान कर दिया है। बचे एक प्रतिशत में बाक़ी देश के सारे लघु पत्र व पत्रिकाओं का बजट है। यानी आप कह सकते हैं कि देश के सरकार तंत्र के प्रचार-प्रसार यानी विज्ञापन पर जिसका पहला हक़ होना चाहिए, उसे ही बंचित कर दिया गया है। और उन्हें महज़ एक प्रतिशत बजट में सिमटा दिया गया है।

 

इसे आप देश और समाज का दुर्भाग्य भी कह सकते हैं। इसी विज्ञापन पर क़ब्ज़ा जमाने के नतीजे में मीडिया के बड़े घराने में सरकार की जी हुजुरी और चमचागीरी करने की एक होड़ सी लग गई है। यह सारे के सारे मीडिया के बड़े घराने देश की चिंता छोड़कर सरकार की ख़ुशामद करने की चिंता करने लगे हैं। और उनकी इस चिंता को सरकार भी सर आंखों पर रखते हुए सरकारी मीडिया बजट का 99 प्रतिशत हिस्सा लघु पत्र-पत्रिकाओं के पेट को काटकर इनके पेट को भरने के लिए विधिवत और तर्क संगत स्वरूप का हवाला देकर उनके लिए सुरक्षित कर दिया है। नतीजे में ये बड़े मीडिया घराने भी  सरकारी के भोपू बनने में शर्मिंदगी महसूस नहीं कर रहे हैं। बेशर्म और बेहया होकर ही नहीं बल्कि खुले तौर पर नंगे होकर सरकार का गुनगान करने पर आतुर हैं। लेकिन देश और दुनिया को पता है और पता होना भी चाहिए कि अगर देश के मीडिया के तौर पर  आज कोई भी सच बोलता है। और सच दिखाता है तो वह देश का हिंदी लघु पत्र-पत्रिका ही है। इसलिए देश के लोगों और समाज को भी इस लघु पत्र-पत्रिकाओं की चिंता करनी चाहिए। क्योंकि यह इसे सरकारी तौर पर मार दिया गया तो फिर देश भी नहीं बचेगा। देश को बचाने के लिए आपको देश के लघु पत्र-पत्रिकाओं को बचाना होगा। इसके लिए हमारा सुझाव है कि देश बचाना है तो लघु पत्र-पत्रकाओं को बचाएं।  सामर्थ्यवान लोग लघु पत्र-पत्रिकाओं को बचाने में अपना योगदान दें। लघु पत्र-पत्रिकाओं से ही आप वास्तविक पत्रकारिता करने की उम्मीद रख सकते हैं। अपने-अपने क्षेत्र की उन लघु पत्र-पत्रिकाओं की आर्थिक और सामाजिक मदद करें, जो वास्तविक रूप से देश के साथ खड़े हैं। सरकार के साथ खड़ा होना, देश के साथ खड़ा होना नहीं है । देश को बचाना हम सब का है धर्म है। देश व समाज को बचाने के लिए आप खुलकर या छुपकर आगे आएं। और लघु पत्र-पत्रकाओं को बचाएँ।  आप मरते ए लघु पत्र-पत्रिकाओं के लिए बने बनें। देश के लघु पत्र-पत्रिकाओं से तो सरकार ने ऑक्सीजन छीन लिया है। लघु-पत्र-पत्रिकाओं के विज्ञापन का ऑक्सीजन आप बनें।

जयहिंद, जयभारत