ए आर आज़ाद
एडवोकेट चांद मल चोपड़ा, शीतल सिंह और हिमांशु चक्रवर्ती के क्या नए अवतार के रूप में वसीम रिज़वी सामने आए हैं। दरअसल 37 साल पहले ़कुरआन की 85 आयतों को हटाने की मांग एडवोकेट चांद मल चोपड़ा, शीतल सिंह और हिमांशु चक्रवर्ती ने की थी। एडवोकेट चांद मल चोपड़ा ने अगले वर्ष 29 मार्च, 1985 को कोलकाता उच्च न्यायालय में इस बाबत एक याचिका दायर की थी।
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इसके बाद तो राज्य सरकार क्या, केंद्र सरकार भी हिल गई थी। पश्चिम बंगाल के तत्कालीन सीएम ज्योति बसु ने इस याचिका को घृणित बताया था। लेकिन, इसी तरह की एक याचिका जब उत्तर प्रदेश के लखनऊ शहर के वसीम रिज़वी ने सुप्रीम कोर्ट में दायर की और ़कुरआन से 26 आयतों को हटाने की मांग की तो राज्य सरकार की ओर से न तो कोई सुगबुगाहट दिखी और न ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कोई सधी हुई प्रतिक्रिया दी।
उस समय केंद्र सरकार ने तो भारत के महान्यायवादी को पश्चिम बंगाल भेज दिया था। बाद में कोलकाता उच्च न्यायालय ने तो इस याचिका को रद्द कर दिया था। अब वसीम रिज़वी का मामला देश की सबसे बड़ी अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट में है। अब सवाल उठता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट बंगाल हाईकोर्ट के फैसले को नज़ीर मानते हुए उसे रद्द कर देगी? या फिर एक संवैधानिक पीठ बनाकर इस याचिका पर सुनवाई करेगी? तारी़ख पर तारी़ख देकर इस मुद्दे को जीवंत रखने की कोशिश करेगी और टालने की गरज़ से इस मामले को लंबित रखेगी! इसकी सुनवाई धीमी कर देगी, और, इसका भी हस्र वही होगा, जो बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि का हस्र हुआ था? यानी फैसला आने में 70-80 साल लग जाएंगे!
दरअसल सुप्रीम कोर्ट क्या करेगी, फौरन याचिका रद्द कर देगी, दूसरे पक्ष को सुनेगी, दोनों पक्ष को सुनेगी या फिर त्वरित कोई फैसला न सुनाकर ठंडे बस्ते में इस पूरे मामले को डाल देगी? कुछ कहा नहीं जा सकता है। लेकिन, कोलकाता हाईकोर्ट के सामने जो विचारणीय बिन्दु थे, वह यही था कि किसी ऐसे धार्मिक ग्रंथ जिसपर पूरी दुनिया के मुसलमानों का अ़कीदा है,आस्था है और उसके प्रति वचनबद्धता है। उस आस्था, उस अ़कीदा और उस वचनबद्धता को कोई अदालत कैसे कुचल देगी? ज़ाहिर सी बात है कि पश्चिम बंगाल उच्च न्यायालय ने इसी बिन्दु पर ़गौर करके उस विवादास्पद याचिका को रद्द कर दिया था। और, इसी आस्था की बुनियाद पर सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन ची़फ जस्टिस रंजन गोगोई ने बाबरी मस्जिद का फैसला राम मंदिर के पक्ष में दे दिया।
अब मौजूदा सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस शरद अरविंद बोबडे के सामने आस्था के सवाल पर दो नज़ीर हैं। क्या वे इन दोनों नज़ीरों से इत्त़फा़क रखने से बचेंगे? और बचते हुए कौन सी ऐसी अदालती परंपरा ़कायम करेंगे जो देश की विभिन्न अदालतों और सुप्रीम कोर्ट के बनने वाले ची़फ जस्टिसों के लिए नज़ीर बन सके। यह एक यक्ष प्रश्न है।
वसीम रिज़वी का पूरा का पूरा मामला या तो पागलपन का है, या तो ज़रूरत से ज्यादा महत्वाकांक्षा का है या जेल जाने के डर का है, भाजपा व संघ को खुश रखकर कुछ पाने का है?
यह सवाल इसलिए उठ रहा है कि वसीम रिज़वी कोई बहुत बड़े ज्ञानी नहीं हैं। इस्लॉमिक स्कॉलर नहीं हैं। धर्मगुरू नहीं हैं। चारों वेदों के जानकार नहीं है। और, न ही सलमान रुश्दी की तरह विश्वव्यापी विद्वान। जब यह कुछ नहीं हैं तो फिर किसी धर्म विशेष के धार्मिक ग्रंथ पर इस तरह का अनैतिक, अमर्यादित और आस्था को धूल-धुसरित करने वाला वह शख्स कौन हो सकता है?
सबसे पहले वसीम रिज़वी की याचिका अगर चाहे सुप्रीम कोर्ट तो इसी आधार पर रद्द कर सकती है। ़कुरआन ऐसा एक धार्मिक ग्रंथ है, जिसमें एक शब्द की भी हेराफेरी की गुंजाइश कहीं से संभव ही नहीं है। जिस मदरसा को रिज़वी जैसे अल्पज्ञानी, महत्वाकांक्षी, लालची, ़खुदगर्ज़ और स्वार्थी लोग आतंकवाद का अड्डा बताते हैं, दरअसल वह आतंकवाद का अड्डा नहीं बल्कि आतंक को मिटाने का, समाज को ़खुशनुमा बनाने का, समाजवाद का दस्तऱखान बिछाकर एक साथ खाने का और गंगा-जमुनी तहज़ीब सिखाने का एक अड्डा, एक केंद्र, एक मरकज है। इसलिए वहां से हर साल हर मदरसे से उसकी संस्थागत ढांचा के मुताबिक दस से लेकर दस हज़ार तक हा़िफज़ निकलते रहते हैं।
वसीम रिज़वी कभी रमज़ान में तरावी पढ़े होते तो उन्हें हा़िफज़ की ़कीमत समझ में आती। उन्हें पता चलता कि जब हा़िफज़ ए ़कुरआन तरावी पढ़ाते हैं तो कभी-कभार उनसे चूक हो जाती है। बीच की कोई आयत भूल जाते हैं, या कोई शब्द छूट जाता है तो पीछे खड़े हा़िफज़ या संबंधित आयत कंठस्य किया हुआ कोई मुसलमान उन्हें दुरुस्त कराता है। उन आयतों को ज़ोर से पढ़कर उन्हें ध्यान दिलाता है।
अब इस उदाहरण से हर कोई समझ सकता है कि ़कुरआन में कोई भी शख्स न तो एक हर्फ जोड़ सकता है और न छोड़ सकता है। ़कुरआन सिर्फ भारत के मुसलमानों की थाती नहीं है बल्कि यह विश्व भर के मुसलमानों की धरोहर है। दुनिया के सभी देशों में मुसलमान हैं, ़कुरआन है, मस्जिद है और इबादत है। इसलिए इस तरह का विवादित बयान कहीं से भी सामाजिक समरसता के लिए सही नहीं है। क्योंकि हर धर्म की अपनी-अपनी आस्था है। और उस आस्था पर केंद्रित धार्मिक-पुस्तक है। जो उस धर्म के अनुयायियों के लिए संविधान से भी बड़ा महत्व रखता है। अब ऐसे में आज ़कुरआन पर चोट हो रही है, कल कोई गीता, वेद, महाभारत, गुरुग्रंथ साहिब और बाइबिल पर सवाल खड़ा कर दे तो देश की अदालत किन-किन धर्म-ग्रंथों से क्या-क्या निकलवाती रहेगी?
अदालत का काम विवादित बयान और धर्मग्रंथों के बिंदुओं को संशोधित करना, किसी चैप्टर को हटाना, किसी चैप्टर को जोड़ना नहीं है। क्योंकि धार्मिक पुस्तक कोई सिलेबस नहीं है कि जब चाहे आप कुछ जोड़ दें और जब चाहें उसमें से कुछ हटा दें।
एक साहित्यकार, एक पत्रकार और देश के एक सुलझे हुए नागरिक होेने के नाते मेरा सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध है कि किसी भी धार्मिक आस्था को किसी सनकी, महत्वाकांक्षी और अपरिपक्व नागरिक की याचिका पर सुनवाई नहीं करनी चाहिए। जिससे धार्मिक ग्रंथों पर उसके संशोधन को लेकर याचिकाओं की बाढ़ आ जाए। देश की राजनीतिक पार्टियों को धर्म से खेलने की इजाज़त नहीं देनी चाहिए। धर्म आस्था है, सियासत नहीं। और, मुस्लिम धर्मगुरुओं को भी ़गलत लोगों को, चापलूसों को और महामत्वाकांक्षियों को, नज़राना भेंट करने वालों और गिफ्ट पहुंचाने वालों को आगे बढ़ाने और उनकी पैरवी करने से बचना चाहिए, गुरेज़ करना चाहिए।
शिया धर्म गुरु कल्बे जव्वाद ने अपने निजी स्वार्थ के लिए वसीम रिज़वी की पैरवी कर, उन्हें आगे बढ़ाकर शिया वक़़्फ बोर्ड का चेयरमैन बनाकर जो ़गलती की, उसका ़खामयाजा आज देश भुगत रहा है।