किसान की परेशानी से पूरा देश परेशान, बिहार में भी आंदोलन!

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रिपोर्ट, अफ़ज़ल इमाम ‘मुन्ना’

केंद्रीय कृषि कानूनों के ख़िलाफ़ देश के किसान संगठनों का आंदोलन अब जिस राह पर जा रहा है, उसे देखते हुए यह कहना कठिन है कि किसी समाधान तक पहुंचा जा सकता है। क्योंकि, नमो सरकार की टामटोल रवैया व सुप्रीम कोर्ट के द्वारा कमिटी गठन के बावजूद भी केद्र्रीय कृषि क़ानूनों को रद्द करने की मांग को लेकर कड़ाके की ठंड व घने कोहरे के बीच दिल्ली एनसीआर की तमाम सीमाओं पर देश के लाखों किसान बैठे हुए हैं। वहीं, तीनों केन्द्रीय कृषि कानून के विरोध में आंदोलन कर रहे किसानों से टकराव बढ़ता देख केंद्र्र सरकार नई रणनीति बनाने में जुट गई है। उधर, केंद्र्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ बिहार के विभिन्न जिलों में भी आंदोलन शुरू हो गया है। समस्तीपुर में माकपा विधायक अजय कुमार, पेशे से वकील व ट्रेड यूनियन नेता डॉ.एस.एम.असग़र इमाम, भाकपा माले नेता प्रो.उमेश कुमार, सुरेन्द्र प्रसाद सिंह व वंदना सिंह आदि के नेतृत्व में धरना-प्रदर्शन का दौर जारी है। जबकि, राजधानी पटना में अखिल भारतीय खेत व ग्रामीण मजदूर सभा के राष्ट्रीय महासचिव धीरेंद्र झा व अररिया में पूर्व सांसद सरफराज आलम आदि के नेतृत्व में टै्रक्टर रैली का आयोजन किया गया है। वहींं, इस वर्ष जनवरी माह की 30 तारीख़ को महात्मा गांधी की शहादत दिवस पर किसानों की 4 सूत्री मांगों के समर्थन में पूरे बिहार में 12.30 बजे दिन से 1 बजे तक विराट मानव श्रृंखला बनाया जाना तय है। तमाम किसान संगठनों के साथ लालु पुत्र नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाली महागठबंधन इसकी तैयारी में लगी है। राजधानी पटना स्थित राजद के प्रदेश कार्यालय में महागठबंधन से जुड़े दलों के नेताओं की बैठक तक हो चुकी है। लालु पुत्र नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने किसानों की मांग को जल्द पूरा करने की मांग की है।

बता दें कि, पिछले करीब दो महीनों से दिल्ली एनसीआर से लगी सीमाओं पर किसानों का जबरदस्त आंदोलन जारी है। बीते 26 नवंबर से किसान तीन कृषि कानूनों को रद्द करने व एमएसपी की गारंटी की मांग को लेकर दिल्ली एनसीआर के बॉर्डर पर धरना दे रहे हैं। किसान व सरकार के बीच अब तक 11 दौर की वार्ता तक हुई है। लेकिन, अभी तक कोई ठोस हल नहीं निकल पाया है। किसानों ने साफ कर दिया है कि जब तक उनकी मांगें पूरी नहीं होती, वो वापस नहीं जायेंगे। नमो सरकार के नहीं चाहते हुए भी दिल्ली बॉर्डरों पर धरना दे रहे किसानों व समर्थकों ने ’गणतंत्र दिवस’ के दिन यानी 26 जनवरी को राजधानी दिल्ली सहित देश के विभिन्न जगहों पर टै्रक्टर रैली निकालकर विरोध प्रकट किया है।

दरअसल, वर्ष 2014 के 16वीं लोकसभा के आम चुनाव में एनडीए समर्थित भारतीय जनता पार्टी यानी भाजपा की ओर से कई सारे मनलुभावने वायदे किए गए थे। जिस पर भरोसा करके वोटरों ने नमो-अमित शाह की जोड़ी वाली भाजपा को भारी जीत दिलाई थी। इन्हीं वायदों में एक वादा यह भी था कि देश के किसानों की आमदनी दोगुनी की जायेगी और किसान अपनी मेहनत का पूरा मुआवज़ा हासिल करेंगे। बिहार सहित देश के अधिकांश किसान मानते हैं कि किसानों से किया गया वायदा आज तक पूरा नहीं किया गया है। अब हालत यह है कि नमो की केंद्र सरकार किसानों की आमदनी दोगुनी करने व उन्हें ़खुशहाल बनाने के नाम पर तीन कृषि कानून लाई है। जिसने पूरे देश के किसानों के ़गुस्से को बढ़ा दिया है। उनके भीतर यह भय पैदा हो गया है कि देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार किसानों को कॉरपोरेट्स घरानों का बंधुआ मज़दूर बनाना चाहती है। उनकी ज़मीन हड़पना चाहती है और उनकी आमदनी का एकमात्र रास्ता भी बंद करना चाहती है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को तत्काल कृषि क़ानूनों पर रोक लगाने का आदेश देते हुए एक कमिटी का गठन कर आंदोलन की जगह और तरीका बदलने को कहा है। लेकिन, आंदोलन कर रहे किसान नेताओं का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने जिन सदस्यों का नाम कमिटी में शामिल किया है। ये सभी सदस्य किसी न किसी रूप में इन कृषि क़ानूनों का समर्थन कर चुके हैं। इसलिए इनसे न्याय की उम्मीद नहीं की जा सकती है। वैसी हालत में तीनों कृषि क़ानूनों की वापसी तक यह आंदोलन जारी रहना तय है।

इधर, नमो की केंद्र सरकार का दावा है कि तीनों कृषि क़ानून किसानों के हित में है। इस कानून के लागू हो जाने के बाद देशभर के किसानों को अपनी फसल कहीं पर भी और किसी भी मूल्य में बेचने की आज़ादी मिलेगी। बल्कि, वह मंडी सिस्टम से बाहर भी आ सकेंगे। जिसमें वह फंस कर रह गए हैं। केंद्र की नमो सरकार के इन दावों में कुछ दम जरूर महसूस होता, अगर वह इसके साथ कुछ आंकड़ें व उदाहरण पेश कर किसानों को बताती। लेकिन, उसने जिस बुनियाद पर मंडी सिस्टम ख़त्म करने व कॉन्टै्रक्ट फार्मिंग को बढ़ावा देने और कॉरपोरेट्स घराने को कार्य करने की अनुमति देने का फैसला किया है, वह बुनियाद ही ख़स्ताहाल है।

उदाहरण के तौर पर एनडीए समर्थित भाजपा व जदयू की सरकार द्वारा बिहार में वर्ष 2006 में मंडी सिस्टम को ख़त्म कर दिया गया। दावा किया गया था कि यहां के किसानों को अच्छे दाम मिलेंगे और वह खुले बाज़ार में अपनी फसल बेच सकेंगे। लेकिन, इन 15 वर्षों में यह बात देखने में नहीं आया। एपीएमसी सिस्टम तो खत्म हो गया। लेकिन, किसानों की हालत में कोई सुधार नहीं हो पाया। बल्कि, इन 15 वर्षों में सूबे बिहार का किसान देश का सबसे ख़स्ताहाल व ग़रीब किसानों में गिना जाने लगा है। जबकि, एपीएमसी सिस्टम की वजह से बिहार सरकार को क़रीब साठ करोड़ रूपए वार्षिक टैक्स के रूप में आमदनी होता था, जो अब नहीं मिल रहा है। कुछ यही हाल दूसरे राज्यों का भी है। जहां पर एपीएमसी सिस्टम खत्म तो नहीं किया गया। लेकिन, इसे निष्क्रिय ज़रूर कर दिया गया है। उन जगहों के किसानों का हाल भी बहुत अच्छा नहीं है। पंजाब व हरियाणा के किसान पूरे देश में सबसे ज़्यादा संपन्न व खुशहाल किसान करार दिए जाते हैं। यह उनके खेती व फसलों की बिक्री से भी पता चलता है। फिर, ऐसी हालत में विवादित कृषि क़ानून को क्यों माने ? आज यही कारण है कि देशभर के किसान इस क़ानून का विरोध कर रहे हैं।

दिल्ली की ओर जाने वाली हर सड़क के बॉर्डर पर किसानों ने सड़कों पर ही क़रीब दो महिनों से डेरा डाल रखा है। किसान जिस तैयारी से आए हैं, वह विस्मृत करने वाली है। दवा, भोजन व लंबे वक्त तक धरने के लिए जरूरी सभी तरह का इंतज़ाम उन्होंने पहले से जोड़ रखा था। यही नहीं अपनी भलमनसाहत से उन्होंने आसपास के लोगों की सहानूभूति भी बटोर ली है। इसकी वजह से उन्हें जो कमी पड़ती, उसकी तत्काल नि:शुल्क आपूर्ति हो जा रही है। सिख समुदायों के गुरूद्वारे व तमाम सेवाभावी संगठनों द्वारा भोजन-पानी से लेकर कपड़ा धोने तक की नि:शुल्क व्यवस्था की गई है। साथ ही, अन्य जरूरी सामानों की भी आपूर्ति की जा रही है। सेवादारों द्वारा ड्राइफ्रूट से लेकर चाय-कॉफी, गरम दूध व पानी तक का इंतजाम किया गया है। मुस्लिम समुदाय के लोगों ने भी किसानों के लिए खाने-पीने का अच्छा इंतजाम कर रखा है। जहां किसान व उनके समर्थक मीठे चावल यानी ज़र्दा का ़खूब मज़ा ले रहे हैं। इतना ही नहीं, कड़ाके की ठंड से बचाने के लिए दिल्ली की घरेलू महिलाऐं व बच्चे दिल्ली बॉर्डरों पर पहुंचकर किसानों के बीच कंबल तक बांट रहे हैं।

दूसरी ओर किसान आंदोलन की वजह से हरियाणा व एनसीआर से राजधानी दिल्ली आने-जाने वालों को काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है। फिर भी किसानों को अपार समर्थन मिल रहा है। हालांकि, यह आशंका जरूर उठाई जा रही है कि वे कब तक इस देश को शांति एवं समझदारी के भाव से क़ायम रख सकेंगे। किसानों के मशहूर नेता महेंद्र सिंह टिकैत ने जब 32 वर्ष पूर्व लाखों किसानों के साथ बोट क्लब पर धरना दिया था तब भी यही सवाल उठा था। लेकिन, उन्होंने जो चाहा कर दिखाया था। इस बार भी किसान किसी भी हालत में अपनी मांगों से पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। किसान नेता राकेश टिकैत व स्वराज इंडिया के योगेन्द्र यादव आदि की अगुआई में पिछले 62 दिनों से दिल्ली एनसीआर की बॉर्डरों पर डटे हुए हैं। नमो की केंद्र सरकार किसी तरह किसान आंदोलन को ख़त्म कराने की कोशिश में लगी है। लेकिन, किसान तीनों कृषि क़ानूनों को रद्द कराने की मांग पर अड़े हुए हैं।

राजनीतिक पंडितों का कहना है कि जिस तरह तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार अन्ना हजारे के आंदोलन के अंदाज व उसको मिलने वाले जनसमर्थन को समझने में पूरी तरह से नाकाम रही थी, उसी तरह एनडीए समर्थित नमो सरकार भी किसानों के आंदोलन को समझ नहीं पा रही है। नमो की केंद्र सरकार ने ऐसा रवैया अपना रखा है कि बातचीत के 11वें दौर के बाद भी कोई हल नहीं निकल पा रहा है। वह दुनिया भर के मामलों पर बात कर लेगी। लेकिन, तीनों कृषि क़ानूनों की वापसी के लिए बात नहीं करना चाहती। सबसे बड़ी बात है कि किसानों के इस ऐतिहासिक आंदोलन में पंजाब व हरियाणा के किसान ही नहीं रहते हैं। बल्कि, उत्तर प्रदेश व दूसरे राज्यों के भी किसान इस आंदोलन से जुड़ने लगे हैं। कोरोना काल का असर भी किसान आंदोलन पर जरूर पड़ा है। क्योंकि, कई दूसरे राज्यों से किसान जत्थों में नहीं आ पाए हैं। लेकिन, यह तो साफ दिख रहा है कि बिहार सहित देश के हर कोने से किसान नेता आंदोलन को अपना समर्थन देने के लिए जरूर आ रहे हैं। अब देखना है कि आगे चलकर नमो सरकार का रूख इस किसान आंदोलन के प्रति क्या रहता है ? यह तो वक्त आने पर ही पता चल सकता है।