जानिए हावड़ा ब्रिज को

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ए आर आज़ाद

 

पश्चिम बंगाल का हावड़ा ब्रिज भारत छोड़ो आंदोलन की भी याद दिलाता है। इस पुल का निर्माण यानी इस पुल ने द्वितीय विश्व युद्ध की बमबारी के भयावह दृश्य का गवाह रहा। स्वाधीनता आंदोलन का प्रत्यक्ष गवाह के तौर पर आज भी यह सीना ताने खड़ा है। इसने देश की आजादी भी देखी और उस मंजर को भी यादों में अपनी आंखों में समेटे है, जब आजादी दिलाने वाले महात्मा गांधी एक सनकी नाथूराम गोडसे की गोली से हे राम कहकर दुनिया को अलविदा कह गए तो अपने राष्ट्रपिता को श्रद्धासुमन अर्पित करने के लिए लाखों की संख्या में इसी हावड़ा ब्रिज पर लोग नम आंखों के साथ जमा हुए थे।

हावड़ा ब्रिज को देखेंगे तो इन सब कथाओं के अलावा बंगाल के भयावह अकाल का मंजर भी उसकी आंखों में बरबस दिखने लगेगी। इस पुल का निर्माण-कार्य अंग्रजों के जमाने में 1936 से शुरू हुआ और 1942 में संपन्न हुआ। लेकिन  दो महीने तक यह पुल बनकर उद्घाटन के इंतजार में दूर से लोगों के आकर्षण का केंद्र बनकर खड़ा रहा।

दरअसल दिसंबर, 1942 में द्वितीय विश्वयुद्ध चरम पर था। जब जापान इस युद्ध में हिस्सेदार था तो जापान का एक बम हावड़ा ब्रिज के आसपास गिरा लेकिन यह ब्रिज बम के उस धमाकेदार कंपन्न को बर्दाश्त कर लिया। आसानी से सह लिया। यानी इस ब्रिज में धैर्य एवं सहनशक्ति इतनी है कि आज भी कोलकाता को अपने सीने में बसाए हुए है। 78 साल का यह जवान पुल 3 फरवरी, 1943 से जनता के लिए समर्पित है। हालांकि इसने उद्घाटन का सेहरा नहीं पहना। बावजूद इसके बिना किसी गिला-शिकवा के कोलकाता के आम नागरिक और देशी-विदेशी सैलानियों, पर्यटकों के बीच अपनी लोकप्रियता का छाप छोड़ता है।

सत्यजीत रे और मणीरत्नम जैसे निर्देशकों ने हावड़ा ब्रिज को फिल्मों के केंद्र में रखकर आम जनता के बीच इसकी प्रतिष्ठा और मान बढ़ाने में अपना योगदान दिया है। हॉलीवुड और वॉलीवुड में हावड़ा ब्रिज अपनी मुक्कमल जगह बनाने में कामयाब रहा है। यहां कितनी फिल्मोें की शूटिंग हुई, शायद किसी के पास सही आंकड़ा न हो।

हावड़ा ब्रिज को रविंद्र सेतु भी कहा जाता है। और इस रविंद्र सेतु यानी हावड़ा ब्रिज की रखरखाव का जिम्मा कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट के हवाले है। हावड़ा ब्रिज का नाम पश्चिम बंगाल के नोबेल विजेता और हिंदी साहित्य में अपना अनोखा योगदान देने वाले रविंद्र नाथ टैगोर के नाम पर रविंद्र सेतु रखा गया। 1965 से पहले तक रविंद्र सेतु हावड़ा ब्रिज के नाम से ही जाना जाता था। हावड़ा ब्रिज बनने की भी अपनी कहानी है। उस पर हम चर्चा करेंगे। लेकिन पहले हम इस ब्रिज की ऐतिहासिकता एवं सुंदरता का जिक्र करते हैं।

यह ब्रिज दुनिया में अपनी एक मिसाल रखता है। इस ब्रिज की खासियत यह है कि पूरा ब्रिज हुगली के दोनों किनारे पर बने 280 फीट के दो पायों पर ही टिका है। दोनों पिलरों के बीच की दूरी 1500 फीट है। यानी हावड़ा ब्रिज एक चौपाया ब्रिज है। यानी चार पिलर के अलावा कोई पांचवां पिलर नहीं है। यानी इसे आपर चार खंभा पाला पुल भी कह सकते हैं। यही वजह है कि दुनिया भर में इस ब्रिज का अपना नाम है। अपनी महत्वा है। और दुनिया में इसे अपने तरह का तीसरा और सबसे लंबा ब्रिज माना गया।

हावड़ा ब्रिज के निर्माण स्टील के प्लेटों को जोड़ने के लिए किसी भी तरह के नट बोल्ट का इस्तेमाल नहीं किया गया है। इस पुल के निर्माण में स्टील के प्लेटों को जोड़ने के लिए धातु की कीलों का इस्तेमाल किया गया है। इन कीलों को अंग्रेजी में रिवेट्स कहते हैं। आपको बता दें कि जब यह पुल जनता के लिए खोला जा रहा था तो सबसे पहले पुल की क्षमता को आंकने के लिए एक ट्राम को इस छोरे से उस छोर तक भेजा गया था। और फिर गुजरे जमाने में इस पुल से होकर ट्राम भी परिवहन का एक जरिया था। लेकिन ब्रिज पर ट्रैफिक का दबाव बढ़ जाने के बाद ट्रामों की आवाजाही 1993 में बंद कर दी गई। यानी पुल निर्माण और उसके चालू होने के पांच दशक बाद हावड़ा ब्रिज से ट्राम का गुजरना मना हो गया।

इस ब्रिज को बनाने में टाटा स्टील का स्टील काफी काम आया। इस ब्रिज में 26 हजार 500 टन स्टील खप गया। 26 हजार 500 टन में से लगभग 23 हजार 500 स्टील की आपूर्ति टाटा स्टील यानी उस जमाने का टिस्को ने किया था।

कहा जाता है कि इस पुल के ढांचे में एक मालवाहक जहाज 2005 में फंस गया था। नतीजतन हावड़ा ब्रिज के ढांचे को काफी नुकसान हुआ था।

हावड़ा ब्रिज को लेकर अजब-गजब की कहानी भी सामने आई। 2011 की बात है कि कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट के सामने रिसर्च से एक बात सामने आई कि आवागमन करने वाले लोगों के तंबाकू खाकर थूकने से हावड़ा ब्रिज के पायों की मोटाई कम हो रही है। और तब कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट ने इस स्टील के पायों को फाइवर ग्लास से ढंकना मुनासिब समझा। 2011 में 20 लाख लागत की राशि से यह काम अपने अंजाम तक पहुंचा।

हावड़ा ब्रिज ने अपनी औसतन आधी जिंदगी तय कर ली है। 78 साल का यह युवा हावड़ा ब्रिज डेढ़ सौ साल का होते ही बूढ़ा हो जाएगा। और इसे बुढ़ापे से बचाने के लिए और इस जवान को युवा बनाए रखने के लिए कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट को तकनीकी विशेषज्ञों की मदद से बराबर इसकी जांच पड़ताल, रख-रखाव और मरम्मत के साथ-साथ हर तरह की निगरानी पर केंद्रित रहना होगा। क्योंकि अपने जमाने का दुनिया का तीसरा लंबा पुल फिर बनाना कोई आसान काम नहीं है।

इस हावड़ा ब्रिज के बनने की भी अपनी कहानी है। हर किसी के मन में यह जिज्ञासा है कि हावड़ा ब्रिज की जरूरत कब आन पड़ी और किस तरह बना यह ब्रिज?

दरअसल कोलकाता और हावड़ा के बीच हुगली नदी है। 1936 से पहले तक हुगली नदी पर कोई ब्रिज नहीं था। नदी को पार करने का जरिया सिर्फ नाव हुआ करती थी। 1871 में तत्कालीन बंगाल सरकार ने हुगली नदी पर पुल बनाने के लिए हावड़ा ब्रिज अधिनियम पारित किया। और इसके तीन साल बाद यानी 1874 में ब्रेड फोर्ड लेसली ने हुगली नदी पर पीपे का पुल बनाया था। इस पुल की लंबाई 1528 फीट थी। और चौड़ाई 62 फीट थी। 1874 में इस पुल पर कुल 22 लाख खर्च हुए थे।

1906 में हावड़ा स्टेशन बना। हावड़ा स्टेशन बनने के बाद लोगों की आवाजाही बढ़ने लगी। और देखते ही देखते ट्रैफिक का भार इस पुल के लिए बर्दाश्त करने के काबिल नहीं रहा। तब तत्कालीन बंगाल सरकार ने पीपे के पुल की जगह एक तैरता हुआ पुल बनाने का फैसला लिया। इसे फ्र्लोंटग ब्रिज का नाम दिया गया। जब काम शुरु करने का वक्त आया तो पहला विश्व युद्ध शुरू हो गया। कई वर्ष बीत जाने के बाद 1922 में न्यू हावड़ा ब्रिज कमीशन का गठन किया गया। फिर टेंडर आमंत्रित किया गया। जर्मनी ने सबसे कम दर पर टेंडर दर्ज किया। लेकिन जर्मनी और ग्रेट ब्रिटेन की आपसी कलह की वजह से यह ठेका जर्मन को नहीं दिया जा सका। और इस तरह से बाद के दिनों में इस पुल बनाने का जिम्मा ब्रेथवेट और बर्न एंड जोसेप कंस्ट्रक्शन कंपनी को सौंपा गया। इस कंपनी से काम करवाने के लिए मौजूदा ब्रिटिश शासक को ब्रिज निर्माण अधिनियम में संशोधन भी करना पड़ा। और इस तरह से हुगली नदी में बिना पाए के पुल तैयार होकर दुनिया के सामने अपनी मौजूदगी लिए सीना तानकर आज भी खड़ा है।