किसी का नहीं कभी मिला साथ, रिक्शा खींचता रहा बेबस हाथ

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ए आर आज़ाद

 

जानकर तुम मेरा हाल क्या करोगे

सियासत में हम किसी काम के नहीं रहे–आज़ाद

 

आपने कभी कोलकाता का सफर किया हो तो ए आर आज़ाद का यह शेर आपको उस बेबस हाथ रिक्शे खींचने वाले उस शख़्स की याद करा देंगे, जिनकी सुध अब कोई सरकार नहीं लेती। और किसी राजनीतिक दल को हाथ रिक्शे में अब कोई दिलचस्पी भी नहीं रही।

लेकिन सियासत की इसमें दिलचस्पी हो या ना हो। बावजूद इसके आम लोगों के बीच कोलकाता का मतलब अगर विक्टोरिया मेमोरियल, हावड़ा ब्रिज है तो हाथ रिक्शा भी है।

 

इस बार इलेक्शन में हाथ रिक्शा सभी राजनीतिक दलों के घोषणा-पत्र से बाहर रहा। किसी भी राजनीतिक दल की दिलचस्पी इन 20 हज़ार हाथ रिक्शा खींचने वालों के दर्द में नहीं दिखी। लेकिन फिर हाथ रिक्शा खींचने वालों में न कोई ग्रंथि है और न ही सरकार से कुछ पाने की लालला। वो मेहनत की अपनी इस कमाई पर फर्ख़ भी करते हैं और दो जून की रोटी के जुगाड़ के लिए अपना सबसे बेहतर रोज़गार भी इसे मानते हैं। लेकिन सवाल यही है कि सरकार की उदासीनता की वजह से हाथ रिक्शा आने वाले दिनों में कहीं धरोहर बनकर न रह जाए। क्योंकि नई पीढ़ी इसे अमानवीय मानती है और नए लोग इसे धंधा मानने को तैयार नहीं है। और जो लोग इस धंधे में हैं उनकी उम्र थमती जा रही है। हड्डियां बूढ़ी होती जा रही हैं और जिस्म कमज़ोर। ज़ाहिर है बेजान होता जिस्म कब तक अपनी जान लगाकर इस पेशे को परवान तक पहुंचाए। यह एक बड़ा सवाल है।

दरअसल सियासत की इनके प्रति सिलारहमी और संवेदना नहीं रहने का एक कारण यह भी है कि हाथ रिक्शा को कोलकाता की ज़ीनत बनाए रखने में अपनी उम्र गंवा चुके लोग पश्चिम बंगाल के वोटर नहीं होते हैं। हाथ रिक्शा खींचकर अपनी और अपने परिवार का पेट भरने वाले ये लोग अप्रवासी होते हैं। ये सब या तो बिहार के है या फिर झारखंड के। अन्य दूसरे राज्यों के भी कुछ लोग होते हैं लेकिन उनकी तादाद बहुत कम है। पश्चिम बंगाल के तो लगभग नहीं के बराबर लोग ही इस काम धंधे में लगे हुए दिखते हैं। ज़ाहिर सी बात है कि वोट नहीं तो दिलचस्पी नहीं। यही वजह है कि पश्चिम बंगाल के राजनीतिक दलों ने कभी भी खुलकर और सामने आकर इनकी मजबूरी में कोई दिलचस्पी कभी नहीं दिखाई।

और यही उदासीनता इन हाथ रिक्शा खींचने वालों की ज़िंदगी को तमाशा बनाकर रख देता है। उन्हें अमानवीय तरीक़े से जीने को विवश कर देता है। उन्हें दिनों में कमर तोड़ मेहनत करने को बाध्य कर देता है और रातों  में सड़कों पर सोने के लिए छोड़ देता है। यानी कोलकाता की शान बढ़ाने वाले और पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करने वाले हाथ रिक्शा के मेहनती मज़दूरों के हाथ फिर भी खाली के खाली ही रह जाते हैं। जी तोड़ मेहनत कनरे के बावजूद दो जून की रोटी ही नसीब हो पाती है। कपड़े का तो ये आलम है कि आपको कोलकाता की गलियों में हाथ रिक्शा खींचने वाले बिना चप्पल के एक लुंगी, एक गंजी और एक गमछे से अपने जिस्म के तर बदर पसीने को पोछते हुए हर तरफ नज़र आ जाएंगे। हाथ रिक्शा खींचने वाले ये मज़दूर घंटियों से लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करते हैं। यानी घंटी आवाज़ देने का एक सबब, एक ज़रिया भी बना हुआ है।

कोरोना के बाद तो इस पेशे से जुड़े लोगों के लिए परेशानी मुसीबत का पहाड़ बनकर खड़ी हो गई है। इन मज़दूरों के पास अपने रिक्शे होते नहीं हैं। इनकी शिकायत है कि अब रिक्शे का मालिक दो सौ रुपया पगड़ी भी मांगता है। दरअसल कोलकाता का जो परिवहन है, वह दूसरों सूबों के मुक़ाबले में बहुत सस्ता है। यही वजह है कि कमरतोड़ मेहनत करने के बावजूद हाथ रिक्शा खींचने वाले रोज़ाना डेढ़ सौ से दौ सौ रुपए ही कमा पाते हैं। और उसी में रहना, खाना-पीना और घर के लिए पैसे भी भेजना शामिल है।

दरअसल देखने में हाथ रिक्शा खींचना अमानवीय लगता है। लेकिन कोलकाता की हालात से जब वाकिफ होने की कोशिश की जाती है तो ऐसा आभास होता है कि यह अमानवीय ही कैसे मानवीय बनता चला गया। दरअसल लंबे समय से जो लोग इस धंधे में हैं उनके सामने रोज़गार के दूसरे विकल्प नहीं के बराबर हैं। और कोलकाता के जो बाशिंदे हैं, उनके इनकी लत लग गई है। यह हाथ रिक्शे वाले उनकी ज़िंदगी के लाइफ लाइन बन चुके हैं। कोलकाता देश के उन शहरों में शुमार हैं जहां की तंग गलियां हमें हैरत में भी डालती है और लोकप्रिय भी बनाती है। यही वजह है कि कोलकाता के लोग भी हाथ रिक्शे के चलन को चलने देने के पक्ष में हमेशा खड़े रहते हैं। दरअसल आज भी कोलकाता के लोगों के लिए सबसे सस्ती और आसान सवारी है। अब तो फोन के ज़माने में वहां के बुजुर्ग जो सड़क तक नहीं आ पाते वे फोन पर ही अपने घरों तक हाथ रिक्शा वालों के बुला लेते हैं। यानी हाथ रिक्शा कोलकाता के बजुर्गों की अभी भी पहली पसंद बनी हुई है। आज भी पचास से एक रुपए में हाथ रिक्शा वाले घर-घर पानी पहुंचा देते हैं। शायद इतना सस्ता किसी भी शहर में किराया नहीं होगा। नतीजतन सरकार की पाबंदी लगाने की हर बार की कोशिश की धार को कोलकाता वासी और हाथ रिक्शा चालक मिलकर कूंद कर देते हैं। और सरकार का फरमान, महज़ फरमान ही बनकर रह जाता है, अमली जामा नहीं पहन पाता है। नतीजे में कोलकाता में शान के साथ हाथ रिक्शे की सवारी करते आज भी लोग नज़र आते हैं।

 

और यही वजह है कि सिटी ऑफ जॉय के नाम से मशहूर कोलकाता में हाथ रिक्शा का अपना एक वजूद और अपनी एक विरासत है। जिन्होंने बिमल रॉय की फिल्म दो बीधा ज़मीन देखी होगी उन्हें याद होगा कि उस फिल्म में बलराज साहनी हाथ रिक्शा खींचने वाले मज़दूर हैं। इस फिल्म में बलराज साहनी ने उस किसान शंभू की भूमिका की जिसे अपने खेत छुड़ाने के लिए हाथ रिक्शा खींचने को विवश होना पड़ता है। यानी हाथ रिक्शा रोज़गार से ज़्यादा विवशता की कहानी। मजबूरी की रोटी है। पेट में लगी आग को जी तोड़ मेहनत से निकले पसीने से प्यास बुझाने की दास्तान है। और दो बीधा जमीन के बलराज साहनी के किरदार में अभी भी कोलाकात में 20 हजार से 24 हज़ार शंभू महतो मिल जाएंगे जो किसी न किसी बेबसी में बंधते हुए हाथ रिक्शा के धंधे में बंध गए हैं।

इस हाथ रिक्शे के इतिहास पर जब नज़र जाती है तो हक़ीक़त कुछ इस रूप में सामने आती है। इतिहास का दरीचां खोलने पर पता चलता है कि हाथ रिक्शा का चलन और इसकी शुरूआत जाती हुई 19वीं सदी में हुई थी। यानी इसकी शुरूआत चीनी व्यापारियों ने उन दिनों की थी। उस वक्त उनका मक़सद अपने सामान की ढुलाई करना था। और यही मक़सद धीरे-धीरे कोलकाता की एक पहचान बनकर रह गई। जब गोरे भारत आए तो उन्होंने इस चलन को और मज़बूती प्रदान कर दी। उन्होंने इसे सस्ते परिवहन के तौर पर विकसित कर दिया। और नतीजे में हाथ रिक्शा कोलकाता के लोगों आम व ख़ास के लिए लाइफ लाइन बनकर रह गया।

जब आप भारत के दूसरे सूबों में इस यातायात के साधनों पर नज़र दौड़ाएं तो यह आपको कहीं नहीं मिलेगा। यह कोलकाता की अपनी और निराली शान है। इसलिए कि जब कोलकाता में बारिश होती है और सब कुछ ठप हो जाता है तो हाथ रिक्शा कभी ठप नहीं होता है। न बारिश का असर, न तेज धूप की मार और न ही आंधी व तूफान का खौफ़। हर हालात में हाथ रिक्शा काम करता है।

हाथ रिक्शे के प्रचलन की एक किवंदितियां ये भी है कि गुज़रे ज़माने में शिमला की वादियों में शाही घराने की औरतें पालकी में सफ़र किया करती थीं। और वही शिमला से निकली पालकी अंग्रेज़ों के ज़माने आते-आते हाथ रिक्शा में कब तब्दील हो गई, किसी को पता तक नहीं चल सका। यानी कोलकाता में पालकी का रूप लिए हाथ रिक्शा  अंग्रेज़ी हुक़ूमत में अफ़सरों की पत्नी यानी मेम साहबों की सवारी का सबब बन गया था। हर शाम मेमसाहब हाथ रिक्शा पर सवार होकर कोलकाता की सैर-सपाटे पर निकल पड़ती थी। और तब यह अमीरों और संभ्रांतों की सवारी कहलाती थी। लेकिन अंग्रेज़ों के भारत से जाने के बाद और 1971 में बांग्लादेश के उदय होने के बाद से यह सवारी ख़ास लोगों के बंधन को तोड़कर आम जनों के लिए सुलभ हो गई।

और तब से अबतक हावड़ा ब्रिज के नीचे से बहने वाले गंगा के कितने पानी बह गए। कोलाकाता में सरकार बदल गई। हालात बदल गए। लेकिन कुछ नहीं बदली तो इन हाथ रिक्शा वालों की ज़िंदगी। लेकिन लोगों को भले ही इन पर तरस आता हो लेकिन ख़ुद ये रिक्शा वाले अपने तरस और किसी रहमोकरम के लिए आस लगाए बैठे नहीं दिखते हैं। इन्हें अपने बाज़ुओं पर फ़र्ख़ है। इन्होंने  किसी से कोई उम्मीद नहीं लगाई और न ही किसी से किसी तरह की रहमोकरम की लौ ही जगाई है। दो बीधा ज़मीन का हर शंभू यही कहता हुआ आज भी कोलकाता में नज़र आता है-

हम जी लेंगे इस तरह भी फांककर मां, माटी और मानस की धूल

लो बहारों की दुनिया में सैर का ज़ायक़ा लगाकर कोट में फूल–आज़ाद