तोप का मु़काबला क़लम से करने वाले पत्रकार अली बाकर के बहाने समझिए पत्रकार का राजधर्म

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हर पत्रकार को यह ख़बर ज़रूर पढ़नी चाहिए

ए आर आज़ाद

 

अभिव्यक्ति की आज़ादी का मामला कोई आज का नहीं है। और ऐसा भी नहीं है कि देश में आज के पत्रकार और मोदी सरकार के आने के बाद ही पत्रकार सरकार के रवैए से असंतुष्ट होकर अपनी क़लम चला रहे हैं।

देश की सबसे पहली क्रांति यानी 1857 की क्रांति अभिव्यक्ति की आज़ादी की पहली गवाह बनी थी। और उस समय के पत्रकार गोरे सरकार के विरुद्ध किस तरह से मुखर थे, इसका अंदाज़ इस बात से सहज लगता है कि उन्होंने जब अपनी क़लम को धार दी तो ब्रिटिश हु़कूमत घबरा गई। और 1958 में एक पत्रकार मौलवी मोहम्मद अली बाकर को फांसी की सज़ा दे दी। यानी मौलवी मोहम्मद अली वाकर पहले पत्रकार थे, जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से घबराकर फांसी पर लटका दिया था।

इस फांसी के बाद उस समय काफी प्रतिक्रिया हुई थी। और इसके नतीजे में मैकाले ने 1860 में राजद्रोह ़कानून की नींव रखी। 10 साल बाद यानी 1870 में यह क़ानून ग़ुलाम भारत के अस्तित्व में आया और ़कानून की धारा यानी आईपीसी में शामिल किया गया। बाद में अंग्रेज़ों ने लोगों को इसी राजद्रोह क़ानून के ज़रिए फांसी पर लटकाया।

अब हम जानने की कोशिश करते हैं कि शहीद पत्रकार मौलवी मोहम्मद अली बाकर कौन हैं, जिन्होंने तोप का मु़काबला क़लम से किया था। अली बाकर का जन्म 1790 में हुआ था। इनके पिता मौलना मोहम्मद अकबर दिल्ली के एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। अली बाकर ने दिल्ली कॉलेज में पढ़ाई की और बाद में उसी कॉलेज में फारसी के प्राध्यापक भी बन गए। कुछ दिनों के बाद उन्हें शिक्षा विभाग का अधिकारी भी नियुक्त किया गया। लेकिन अंग्रेज़ों की ग़ुलामी करना उन्हें रास नहीं आया। और पिता से रज़ामंदी लेकर नौकरी छोड़ दी।

इस्ती़फा देने के बाद उन्होंने पत्रकारिता के ज़रिए ब्रिटिश सरकार के ख़िला़फ़ अपनी ब़गावत की आवाज़ को बुलंद किया। और यही वजह रही कि अली बाकर फिरंगियों के अव्वल दुश्मन बनकर सामने आ गए। और अली बाकर ने पत्रकारिता की शहादत में प्रथम शहीद का दर्जा पाया। उनकी क़लम की मारक क्षमता ब्रिटिश हु़कूमत की तोप से भी ज़्यादा थी। उनके लेखन में आज़ाद भारत की गूंज सुनाई पड़ती थी। अली बाकर ने दिल्ली का सबसे पहला उर्दू अ़खबार ‘देहली उर्दू साप्ताहिक’ शुरू किया था। इसे भारतीय उपमहाद्वीप का दूसरा उर्दू अख़बार माना गया। जान ए जहांनुमा भारतीय उपमहाद्वीप का पहला उर्दू अ़खबार था। ‘देहली उर्दू साप्ताहिक’ के अलावा अली बाकर ने ‘मज़हर ए ह़क’ पत्रिका भी निकाली थी। यह पत्रिका 1843 में शुरू हुई। और 1848 तक यानी लगभग पांच सालों तक ही चल सकी।

आपको बता दें कि ‘देहली उर्दू साप्ताहिक’ कश्मीरी गेट स्थित दरगाह ए पंजा शरी़फ़ के लगभग बराबर वाली जगह से निकलती थी। 1857 की लड़ाई में ‘देहली उर्दू साप्ताहिक’ ने क्रांतिकारी भूमिका निभाई। यही वजह थी कि ‘देहली उर्दू साप्ताहिक’  अंग्रेज़ों की नज़र में सबसे बा़गी अ़खबार बन चुका था। यह अ़खबार अंग्रेज़ों के बांटो और शासन करो की नीतियों का पर्दाफाश करता था। नतीजे में ‘देहली उर्दू साप्ताहिक’ का दफ़्तर हिंदू-मुस्लिम एकता का केंद्र बन गया था।

अब अंग्रेज़ी सरकार ने देश के क्रांतिवीर पत्रकारों पर धावा बोलना शुरू कर दिया। जो जहां मिले, उन्हें वहीं गिरफ़्तार कर लिया जाता था। और उन्हें सीधे कारावास में डाल दिया जाने लगा। अली बाकर अपना ठिकाना बदलते भी रहे। और अपना ‘देहली उर्दू साप्ताहिक’ अ़खबार छापते भी रहे। लेकिन अंग्रेज़ सरकार भी कहां थकने वाली थी। आ़िखरकार  अंग्रेज़ी हु़कूमत ने 14 सितंबर, 1857 को अली बाकर को गिरफ़्तार कर लिया। उस समय की ब्रिटिश सरकार ने इसे बड़ी उपलब्धि क़रार दिया। इस कामयाबी को ख़ूब भुनाया। उस समय के चाटुकार अ़खबारों में बड़ी हेड लाइन लग गई। और इस गिरफ़्तारी को अंग्रेज़ों की सबसे बड़ी सफलता के रूप में अ़खबारों ने अपनी सुर्ख़ियां बनाई।

ग़ौरतलब है कि गिरफ़्तारी के दो दिनों के भीतर सारी क़ानून प्रक्रिया आनन-फानन में पूरी कर ली गई। ताकि अली बाकर को जल्द से जल्द फांसी देकर ब्रिटिश हु़कूमत चैन की नींद सो सके।

16 सितंबर.1857 को अंग्रेज़ अधिकारी मेजर हडसन ने अली बाकर को सज़ा ए मौत सुनाई। इतिहास गवाह है कि मोहम्मद अली बाकर को तोप के मुंह पर बांध दिया गया। और तोप दाग दिया गया। इतिहास के मुताबिक़ जब अली बाकर को तोप के मुंह पर बांधा गया तो उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी। कोई डर नहीं था। कोई ़खौ़फ नहीं था। बल्कि उनके चेहरे पर एक ख़ुशनुमा मुस्कुराहट थी। और उनकी ज़ुबान इस शहादत के लिए अल्लाह का शुक्रिया था।

भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में पहले शहीद के रूप में मौलमी मोहम्मद अली बाकर का नाम अमर है। इतिहास पर और देश के इस वीर सपूत पर ़गौर करते हैं तो पता चलता है कि अली बाकर की शहादत को भारत की आज़ादी में कोई योगदान नहीं माना गया। ख़ुद उनकी बिरादरी यानी पत्रकार उनका नाम तक नहीं जानते हैं। उनकी कहीं और कभी बरसी भूले से भी नहीं मनाई जाती है। आज़ादी के योगदान की सूची में उनका कहीं नाम तक नहीं है। देश और दुनिया के सामने मोहम्मद अली बाकर एक अंजान और गुमनाम नाम है। तोप का क़लम से मु़काबला करने वाले श़ख्स को अगर देश भूल जाए तो फिर देश किसे याद रख पाएगा? देश की आज़ादी के लिए इतनी बड़ी क़ुर्बानी आज तक किसी पत्रकार ने नहीं दी है। और न ही बाद में इतनी बड़ी ़कुर्बानी दे सकता है।

इस देश और समाज की विडंबना देखिए कि तोप के सामने खड़े होकर तोप के मुंह में क़ुर्बान होकर आज़ादी के इतिहास में इतना बड़ा योगदान दिया लेकिन उनके इस गौरव गाथा को ही भुला दिया गया। देश की आज़ादी मेंं और योगदानों की फेहरिस्त में उनका नाम इतिहास के किताबों में बंद होकर रह गया है।

आप इसे समाज की अज्ञानता और पाखंड भी कह सकते हैं कि जो लोग देश व समाज के लिए मर मिटते हैं, देश व समाज उन्हें ही भुला बैठता है। पत्रकार बिरादरी को चाहिए कि अगर सच्ची पत्रकारिता करने की लगन है तो वे अली बाकर के ऩ़क्शे क़दम पर चलें। सरकार की तोप का मु़काबला अपनी क़लम से करें। अपने इस वीर पत्रकार को याद करते रहें। इनसे प्रेरणा लेते रहें। और अपनी क़लम से देश व समाज का भविष्य लिखते रहें। क्योंकि एक पत्रकार का काम देश व समाज को जीवंत रखना है। चाहे उसकी एवज़ में उसे अपनी जान ही क्यों न क़ुर्बान करना पड़े। यही है पत्रकारिता का राजधर्म। इस धर्म को निभाना हर पत्रकार का कर्म व धर्म है।