ए आर आज़ाद
आंबेडकर को सबसे ज्यादा निराशा छूआछूत प्रथा ने किया। इसका उल्लेख उन्होंने कई जगह किया। यही वजह है कि वे हमारा छूआछुत के विरुद्ध अपना स्वर मुखर करते रहे। उन्होंने पानी पर सबका अधिकार जैसा आंदोलन चलाया। उन्होंने कुएं और तालाबों से पर अछूतों का भी समान अधिकार की लड़ाई लड़ी। उन्होंने अछूतों के मंदिर प्रवेश की लड़ाई लड़ी। और उनके अंदर ब्राह्म्णवाद से ऊपजे हालात के मद्देनजर उनमें इतना आक्रोश भर गया कि उन्होंने 25 दिसंबर,1927 को अपने अनुयायियों के बीच मनुस्मृति की हजारों प्रतिया जला दी। और तब से उनके अनुयायी, आंबेडकरवादी और हिंदू दलित 25 दिसंबर को मनुस्मृति दहने के तौर पर मनाते हैं।
दलित विरोधी मन को कुंद करने की कला कौशल से निपुण होने के बाद 1926 में उन्होंने अपना सियासी सफर शुरू किया। इसी साल वे बॉम्बे विधान परिषद से सदस्य बने। और इस तरह से वे 1936 तक इसके सदस्य रहे। इस बीच 1935 में उन्होंने सरकारी लॉ कॉलेज के प्रिंसिपल भी बने। दिल्ली यूनिवर्सिटी के रामजस कॉलेज के गवर्निंग बॉडी के अध्यक्ष के तौर पर भी उन्होंने काम किया।
1936 में डॉ भीमराव आंबेडकर ने अपनी नई पार्टी बनाई। पार्टी का नाम दिया-स्वतंत्र लेबर पार्टी। जब 1937 में चुनाव हुआ तो उन्होंने 13 सीटें जीतीं। वे बॉम्बे विधान सभा के विधायक के तौर पर चुने गए। और इस दौरान उन्होंने विपक्ष के नेता के तौर पर भी काम किया।
1942-1946 तक आंबेडकर रक्षा सलाहकार समिति और वाइसराय की कार्यकारी परिषद में श्रम मंत्री के तौर पर भी सेवारत रहे। जब आजादी का आंदोलन अपने चरम पर था तो उन्होंने देश की आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया। आंबेडकर नहीं चाहते थे कि मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग को स्वीकार किया जाए। इसलिए उन्होंने बराबर इस मांग की मुखालफत की। नतीजतन पाकिस्तान की मांग के सबसे मुखर आलोचक के रूप में डॉ. भीमराव आंबेडकर सामने उभरे।
1952 के प्रथम लोकसभा चुनाव में उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा। वे कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार नारायण काजोलकर से हार गए। लेकिन इसी साल आंबेडकर राज्यसभा के लिए चुने गए। उन्होंने फिर एक बार 1954 के लोकसभा उप चुनाव में जीत हासिल करने की कोशिश की। लेकिन इसबार का नतीजा और भी बुरा रहा। वे इसबार तीसरे स्थान पर रहे। यहां से भी कांग्रेस पार्टी की जीत हुई। अगला लोकसभा का चुनाव 1957 में था। वे इसकी तैयारी कर ही रहे थे। लेकिन ईश्वर को शायद लोकसभा उनका पहुंचना उन्हें मंजूर नहीं था। और इसी बीच 6 दिसंबर, 1956 को उनका महापरिनिर्वाण दिल्ली में उनके करोलबाग स्थित आवास पर हो गया। यानी गुलामी वाले भारत की जनता ने उन्हें विधायक बनाया। उनकी पार्टी को 13 सीटें दी। लेकिन आज़ादी के बाद वाली भारत की जनता ने डॉ. भीमराव आंबेडकर को लोकसभा में पहुंचने नहीं दिया। दो बार उन्होंने कोशिश की लेकिन दोनों बार मुंबई की जनता ने उन्हें हराकर यह जता दिया कि देश और समाज पर मर मिटने वाला व्यक्ति को वही समाज अपना शिकार बना लेती है। उसके योगदानों को नजर अंदाज करती है। उसकी योग्ताओं को सिरे से खारिज कर देती है। और यही चीज उन्हें अंदर ही अंदर तोड़ती चली गई। किसी से बयान नहीं करने वाले दर्द को अपने सीने में छुपाते रहे और यही दर्ज कब मधुमेह भयंकर बीमारी का रूप ले लिया उन्हें भी पता नहीं चल सका। धीरे-धीरे उनकी आंखों की रौशनी भी कमज़ोर होती चली गई। यानी 64.7 साल की उम्र में डॉ. भीमराव आंबेडकर को दिल्ली से मुबई लाकर अगले दिन उनके पार्थिव शरीर को मुंबई के दादर चौपाटी समुंद्र तट पर अंतिम संस्कार कर दिया गया। उनके अंतिम संस्कार के दिन दस लाख से भी अधिक अनुयायीओं ने भदंत आनंद कौसल्यायन पढ़कर और उनके पार्थिव शरीर को साक्षी मानकर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली।