ए आर आज़ाद
दरअसल ईमानदार पत्रकारिता की आज देश को वैसी ही ज़रूरत है, जैसी ज़रूरत देश की आज़ादी के लिए गोरे काल में थी। कुछ सालों से पत्रकारिता से मुजरा कराने की सरकारी क़वायद परंपरा बनकर चलन की शक़्ल में देश के सामने है। पत्रकारिता को कोठे पर बैठाना कितना शर्मनाक है? और जो लोग सरकार को ख़ुश करने के लिए और अपने संसाधन जुटाने के लिए कोठे पर अपनी इच्छा से बैठ रहे हैं और मुजरा करके गौरवान्वित हो रहे हैं, उनका क्या कहना? उन्होंने तो अपने ज़मीर से ही हया का परदा उठा लिया है। इस तरह से बेऩकाब होकर भी उनमें शर्म व हया का भाव नहीं दिखता है। माथे पर कोई शिकन नहीं दिखता है। और लाख कहे दुनिया लेकिन फिर भी अपनी कमी मानने को वह तैयार नहीं हैं।
जिस देश में पत्रकार सुरक्षित नहीं हो, उस देश के शासन पर सवालिया निशान खड़ा किया जाए तो फिर यह सरकार का अपमान कैसे? सत्ता में पारदर्शिता ज़रूरी है। और तब तो और ज़रूरी है, जब वह देश लोकतांत्रिक हो और उस देश का हुक्मरां ख़ुद को लोकतांत्रिक सरकार का अगुआ और मुखिया कहे। लेकिन वही मुखिया मुखौटा पहन ले और उस ऩकाब को अगर कोई पत्रकार हटाने की कोशिश करे, तो उसे गिरफ़्तार करना सरकार और पुलिस महकमा की कौन सी नैतिकता है? पत्रकारों की अलग-अलग तौर पर गिरफ़्तारी कहीं न कहीं यह सा़फ पै़गाम देता है कि देश के शासन अपने ही देश के चौथे खंभे की बुनियाद में पड़े कुछ ईंटों से घबरा चुके हैं। सरकार को अब सच से डर लगने लगा है। जब भी कोई सरकार पत्रकारों पर निशाना साधने लगे तो आप समझ लें कि उस सरकार के हाथ से नैतिकता फिसल गई है। और वह डरी हुई सरकार है। असली सरकार वह होती है जो विपक्ष को ऑक्सीजन देती है। अपनी मु़खाल़फत करने वालों को सम्मान देती है। ऐसा इसलिए वह करती है ताकि उसे राह मिल सके, जिससे वह देश को और आगे बढ़ा सके। जब सोच में देश ही नहीं तो फिर सम्मान, विपक्ष और चौथे खंभी की कल्पना और परिकल्पना उस सरकार में कहां देखने को मिलेगी?
पत्रकारों पर मौजूदा सरकार का रवैया कहीं न कहीं यह एहसास करा रही है कि सरकार डरी हुई है। वह जनता से सब कुछ छुपा लेना चाहती है। यानी सरकार टीवी चैनलों और अ़खबारों की उसे ही सु़िर्खयां और ़खबर बनने देती है, जो उसे पसंद है। आज 90 फीसदी मीडिया भी सरकार की साख की चिंता में सरकारी भाषा बोलने को आतुर और व्याकुल दिख रहा है। देश की बदनसीबी देखिए आज का हाई-फाई मीडिया पत्रकारिता का मूल-मंत्र भूल चुका है। उसे अपने संस्थान को सरकार का भोपू बनाने में ़फ़र्ख महसूस होने लगा है या फिर बिना लाग लपेट के कह सकते हैं कि मौजूदा समय के ज़्यादातर मीडिया को सरकार से डर लगने लगा है। मीडिया जब सरकार के इशारे पर नाचने लग जाए या डर जाए तो समझ लीजिए देश पर भारी मुसीबत आने वाली है।
दरअसल ईमानदार पत्रकारिता की आज देश को वैसी ही ज़रूरत है, जैसी ज़रूरत देश की आज़ादी के लिए गोरे काल में थी। कुछ सालों से पत्रकारिता से मुजरा कराने की सरकारी क़वायद परंपरा बनकर चलन की शक़्ल में देश के सामने है। पत्रकारिता को कोठे पर बैठाना कितना शर्मनाक है? और जो लोग सरकार को ख़ुश करने के लिए और अपने संसाधन जुटाने के लिए कोठे पर अपनी इच्छा से बैठ रहे हैं और मुजरा करके गौरवान्वित हो रहे हैं, उनका क्या कहना? उन्होंने तो अपने ज़मीर से ही हया का परदा उठा लिया है। इस तरह से बेऩकाब होकर भी उनमें शर्म व हया का भाव नहीं दिखता है। माथे पर कोई शिकन नहीं दिखता है। और लाख कहे दुनिया लेकिन फिर भी अपनी कमी मानने को वह तैयार नहीं हैं। ज़ाहिर उनके लिए पैसा, विज्ञापन और फंड ही सबकुछ है। ऐसे लोगों को समझना होगा कि सरकार आती है और चली जाती है लेकिन देश हमेशा से है, हमेशा के लिए रहेगा। देश को लेकर मीडिया का जो फ़र्ज़ है, उसे हर हाल में निभाना होगा। मेरा मानना है कि मीडिया को भी देश का क़र्ज़ चुकाना चाहिए। मीडिया का काम व्यक्ति विशेष पूजन नहीं है। उसका काम मातृभूमि की रक्षा करना और जनमानस के बीच देशप्रेम का अलख जगाना है। लेकिन आज मीडिया की स्थिति को देखकर ऐसा कहना पड़ रहा है कि तू ऐसा तो कभी नहीं था।