सुशीला जोशी ‘विद्योत्तमा’
भारत के किसान ने जब भी आवाज़ उठाई, उसकी पृष्ठभूमि में सर्वदा शोषण ही नज़र आया। कभी स्वदेशी ज़मींदारों ने तो कभी विदेशी हुक्मरानों के शोषण ने उन्हें बेज़ुबान जानवर बनने को विवश किया। भारत की स्वाधीनता आंदोलनों में आदिवासियों, जनजातियों और किसानों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। लेकिन उस समय के आंदोलन देश को विदेशी सत्ता से मुक्त कराने के लिए थे न कि सत्ता का दुरुपयोग करने के लिए। इसीलिए हर आंदोलन एक नीतिगत सोची-समझी स्थिति पैदा करने में सफल रहे। लेकिन आज के आंदोलन लोलुपता के मद में डूबे हिंसा व दमनात्मक राजनीति की ऊपज हैं।
भारत में किसान आंदोलन की शुरुआत 1859 से मानी जा सकती है। भारत को आज़ाद हुए त़करीबन 73 वर्ष हो चुके हैं। लेकिन स्त्री और किसान की स्थिति आज भी वैसी ही है जैसी प्रेमचन्द के समय थी। इसीलिए स्त्री पीड़िता होकर भी विश्वसनीय नहीं हो पा रही है। और किसान को अपनी स्थिति सड़कों पर उतरकर कहनी पड़ रही है। किसान अन्नदाता होकर भी क़जऱ्दार है और अपने ही देश में नमक से रोटी खाने को विवश है। विदेशी और ज़मींदार उनसे खेती कराकर फसल हड़प लेते थे। ऊपर से लगान न दे सकने के कारण पीढ़ी दर पीढ़ी क़जऱ्दार बने रहते थे। लेकिन आज तो उन्हें ज़मीन हड़पी जाने की नीयत से सामना करना पड़ रहा है। साथ ही उनकी फसल को कंपनी द्वारा मनमाने दामों पर ख़रीदकर उन्हें फिर से बंधुआ मज़दूर बनाने की तैयारी से भी दो चार होना पड़ रहा है। मंडियां ख़त्म करके सरकार जि़म्मेदारी से मुक्त होकर खेती का निजीकरण करना चाहती है। कंपनियां अधिक मुनाफा कमाने के लिए मनमाने दामों में फसल ख़रीदकर सरकार को उसका हिस्सा देकर खेती को गिरवी रखने में समर्थ होना चाहती है। ऐसी स्थिति में किसान कंपनी का एक मज़दूर मात्र बनकर रह जाएगा। एक तरफ़ तो वह न्यूनतम मूल्य से भी हाथ धो बैठेगा तो दूसरी तरफ बैंक का भी क़जऱ्दार बना रहेगा।
सामयिक आंदोलन पंजाब से उठा और भारत के कोने – कोने में फैला। नील की खेती और नमक का क़ानून तोड़ने के लिए गांधी का सधा हुआ अहिंसक साथ मिला तो आज के दौर में किसानों को स्व. महेंद्र टिकैत का सुदृढ़ और अहिंसक नेतृत्व मिला जो किसी भी राजनीतिक पार्टी के लालच में नहीं आया। और उन्होंने 1967 में फसल का दाम भी तय कराने में सफलता दिलाई। 1987 में बिजली घर में आग लगने के कारण बिजली की समस्या से जूझ रहे किसानों के लिए 25 दिन मेरठ में धरना दिया। और समस्या का हल निकालने में सक्षम रहे। यह वह नेता था जो कभी किसी राजनीतिक पार्टी के दबाव में नहीं आया। और वे हर समस्या में किसानों की अगुवाई करके विश्व के पटल पर छा गए।
किसान हर दौर मेें बदनीयती की समस्या से घिरा और तंग आकर अपनी बात को आंदोलनों में बदलता रहा है। अब तक के सभी किसान आंदोलन किसान को खेती की लागत से भी कम मूल्य मिलने के लिए होते रहे। लेकिन आज का आंदोलन, वह आंदोलन है; जिसमें किसानों को अपनी ज़मीन से हाथ धोने का भय, फसल का पूर्व निर्धारित मूल्य से कम दाम मिलने का भय, साथ ही कोई भी क़ानूनी पेंच फंसने पर न्यायपालिका के बंद दरवाजं़ों का भय, कंपनी के साथ मूल्य पर बात न बनने पर पूरी फसल घर पर सड़ने का भय सता रहा है। इसलिए कहा जा सकता है कि मौजूदा आंदोलन, भय का आंदोलन है। इन सभी भयों से छुटकारा पाने के लिए किसान न्यूनतम मूल्य में वृद्धि के साथ मंडियों को बनाए रखने की मांग कर रहा है। भले ही परिस्थिति ज्यो की त्यों रहे। लेकिन सत्तारूढ़ सरकार स्वयं सब जि़म्मेदारियों से पल्ला झाड़कर हर विभाग का निजीकरण करने में कृतबद्ध है।
किसान का भय और सरकार की सत्ता-लोलुपता में किसी भी सीमा को पार कर जाना ही आज के आंदोलन का लक्ष्य भी है और कारण भी।
सरकार के ये वही क़ानून हैं जो किसानों को पसंद नहीं हैं।
- किसान अपनी ऊपज एपीएमसी की ओर से कहीं भी बेच सकता है। अर्थात दूसरे राज्यों में भी फसल एपीएमसी के ही माध्यम से बेच सकेंगे ।
- किसान अनुबंध पर भी खेती करके बेच सकता है अर्थात बिल्कुल नील की खेती की तरह।
- असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर उत्पादन की बिक्री को नियंत्रण मुक्त किया गया।
अब यदि ध्यान से देखा जाए तो ये तीनों क़ानून किसान को पूरी तरह बंधुआ बनाने में सक्षम हैं। इन क़ानूनों में किसान की किसी भी प्रकार की सुविधा देने की बात नहीं की गई है। उल्टे उन्हें हर तरफ से बांधने या घेरने की या विवश रहने की एक मुहिम है। लेकिन यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि आज का किसान 21वीं सदी में रह रहा है, जिसने कई बार जीवन में हर तरह की ज्वालामुखी फूटती देखी है। और उनसे बचने के लिए उसे इतिहास रचना आता है।
(लेखिका मुज़फ़्फ़रनगर की वरिष्ठ साहित्यकार हैं)