देश बचाना है तो संविधान बचाइए

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ए आर आज़ाद

इसलिए इस गणतंत्र पर देशकी जनता को सोचना है कि संविधान वाला भारत रहेडॉभीमराव अम्बेडकर वाला भारत रहेगांधी वाला भारत रहे या वैसा भारत रहेजहां अन्नदाता की ऐसी अनदेखी होती होजिससे विदेशों की भी आंखें शरमा जाएभय खा जाए?

कुल जमा एक लाख, छियालिस हज़ार, तीन सौ पचासी शब्दों की यह पवित्र पोथी ही अब हमें बचा सकती है। जीला सकती है और देश के मन-मिजाज़ को बेआबरू होने से बचा सकती है।  इसलिए देश बचाना है तो प्रस्तावना को ‘बिच्छू के डंक’ से बचाइए। समझिए क्या है प्रस्तावना? क्या कहती है प्रस्तावना? क्या कहना चाहती है प्रस्तावना? इसे समझने के लिए पहले ठंडे दिमा़ग से पढ़िए प्रस्तावना!-

‘‘हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, पंथ-निरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख़ 26 नवंबर, 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी, संवत् दो हज़ार छह विक्रमी) को एतदद्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।’’

अब प्रस्तावना के बाद डॉ. भीमराव अम्बेडकर के इस कथन पर नज़र दौड़ाइए।-

‘‘भारत का संविधान इस बात पर निर्भर करेगा कि सत्ता किसके हाथ में है? अगर सत्ता अच्छों के हाथ में होगी तो देश उन्नति के शिखर पर पहुंचेगा। और संविधान की आत्मा की रक्षा होगी। और अगर सत्ता बुरी सोच के हाथों लग जाएगी तो संविधान का इस्तेमाल बुराई के लिए किया जाने लगेगा।’’

ज़ाहिर है देश को दिशा देने के लिए उनके मन में तरंग और उमंग थे। आने वाली पीढ़ी को सुनहरे भारत के भविष्य सौंपने के जज़्बे से वो सराबोर थे। क़ानूनविद् डॉ. भीमराव अम्बेडकर एक युगद्रष्टा थे। दूरदृष्टि वाले एक चिंतक-योद्धा थे। उन्होंने जनसंदेश के ज़रिए लोगों को बार-बार ता़कीद की। एक ही संकल्प पूरा करने का लोगों से आह्वाण किया। वह आह्वाण था भारत में एक ऐसा सूरज उगे जो समानता, एकता और अखंडता की तर्ज पर रौशनी फैलाए। इसी संकल्प और प्रण लेकर वह जीते रहे। देश को सोने की चिड़ियां की किंवदंती को अमलीजामा पहनाने की उनमें हसरतें थीं।

उनके सीने में इतनी हसरतें यूं ही नहीं पल रही थीं। वो जानते थे कि अंग्रेज़ कैसे आए और कैसे भागे! उन्हें पता था कि अंग्रज़ों को किसने और कैसे भारत की छाती पर बंदू़क तानने का मौ़का दिया और सीने को चा़क करने के लिए किसने ख़ंजर दिए? इसलिए तो उन्होंने कहा था कि भारत का संविधान इस बात पर निर्भर करेगा कि सत्ता किसके हाथ में है?

आज सत्ता की चौहद्दी को देखने के बाद डॉ. भीमराव अम्बेडकर का वह कहा हुआ सारा शब्द एक सच बनकर आंखों के सामने परदों पर उतरी फ़िल्म की तरह साफ़ और सपाट रूप से सहजता के साथ चलती जा रही है। कहानी उसी हिसाब से बढ़ रही है और कहानी का प्लाट आज भी पूरी तरह अपने कथानक के साथ मौजूद नज़र आ रहा है।

डॉ. भीमराव अम्बेडकर के यहीं शब्द ‘भारत का संविधान इस बात पर निर्भर करेगा कि सत्ता किसके हाथ में है?’ ज़हन में कौंध रहा है।

यूं ही नहीं कोई सवाल बनकर आपके ज़हन में हलचल मचाने लगता है। जब कोई बात हद से गुज़रने लगती है तो पहले हल्की चूभन होती है। इस चूभन के बाद टीस उठती है। और उस टीस के बाद चिंता की लकीरें माथे पर अंकित हो जाती हैं और फिर चिंता की वहीं लकीरें मन-मस्तिष्क को बेचैन करने लगती हैं और फिर वही बेचैनी आपकी परेशानी का सबब बन जाती है। और फिर यहीं से शुरू होती है सवाल बनकर ज़हन में हलचल पैदा।

देश में सत्ता का शोर इतना ज़ोर मारने लगा है कि हर तऱफ हलचल ही नहीं, कोलाहल भी है। भयंकर त्रासदी और ऊहापोह वाली स्थिति सबके सामने खड़ी है। भारतीय मिजाज़ गंगा-जमुनी रहा है। गंगा-जमुना में ज़हर घोल दिया गया है। नतीजतन पानी तो पानी दोआब की मिट्टी भी ज़हरीली हो गई है। इस मिट्टी से ऊपजी हर स्थितियां और परिस्थितियां भी ज़हरीली हो गई हैं।

शासन के लिए ऐसी खेती भले ही कुछ दिनों के लिए उपजाऊ हो जाए, लेकिन ऐसी खेती बार-बार करने से वह खेत आगे चलकर खेती के लाय़क भी नहीं रहेगी। बंजर हो जाएगी।

ज़हर की खेती से कहीं अच्छी खेती अ़फीम की होती है। अ़फीम के नशे की तो एक मियाद भी है। लेकिन हिंदू-मुस्लिम के बीच ऩफरत की एक ऐसी खेती है, जिसमें खेत भी तबाह हो जाता और किसान भी। तो फिर सवाल यही पैदा होता है कि क्या देश से बड़ी सत्ता होती है? क्या सत्ता के लिए संविधान की बलि चढ़ा दी जाए? क्या शासन पर क़ब्ज़ा जमाने के लिए नैतिकता, राष्ट्रीयता, एकता, भाईचारा और प्रस्तावना में प्रदत्त समस्त तथ्यों को सिरे से नकार दिया जाए? नहीं! कतिपय नहीं! किसी भी हालत में नहीं! और किसी भी सूरत में एक लोकतांत्रिक देश में क़तई नहीं! तो फिर नैतिकता की दुहाई देने वाली पार्टी और उस पार्टी की सरकार सत्तासीन होते ही जनता के सभी मौलिक अधिकारों के हनन पर उतारूं क्यों हो गई है?  देश की बहुसंख्यक जनता को हिंदू-राष्ट्र के स्वप्न दिखाकर उसे इसी सपने में खोए रखने का खेल क्यों खेल रही है? भारत की जनता को हिंदू-राष्ट्र का स्वप्न  दिखाना उसको अ़फीम चखाने की ही तरह है। क्योंकि कोई भी होशमंद देश की जनता इस लोकतांत्रिक देश को न तो राजशाही में तब्दील होने देगी और न ही हिंदू देश की कल्पना और परिकल्पना में भारत के नक़्शे को ख़ून से लथपथ होने देगी। भारत एक शांतिप्रिय देश रहा है। इसमें सबको समा लेने की अदभुत क्षमता है। देश तो अपने इस मिजाज़ से नहीं बदलेगा। या तो सरकार को ख़ुद से बदलने की ज़रूरत है या फिर जनता को उस सरकार को बदल देने की ज़रूरत है जो कभी ऩफरत का ज़हर घोलती है। कभी हिंदू-राष्ट्र के स्वप्न का अ़फीम चखाती है और कभी लालच के खूंटे में बांधकर मुंह में जाबी (मास्क) लगा देती है।

इसलिए इस गणतंत्र पर देश की जनता को सोचना है कि संविधान वाला भारत रहे? डॉ, भीमराव आम्बेडकर वाला भारत रहे, गांधी वाला भारत रहे या वैसा भारत रहे, जहां अन्नदाता की ऐसी अनदेखी होती हो, जिससे विदेशों की भी आंखें शरमा जाए, भय खा जाए?