मो. जाहिद हुसैन
ए आर आज़ाद एक मशहूर ग़ज़लगो शायर हैं, जिनके कलाम में हालाते हाजरा की तर्जुमानी होती है। देश के नाज़ुक हालात को देखकर उनका दिल दुखी होता है। और उनकी व्यथा आक्रोश बनकर अभिव्यक्त होती है। फस्ताई ताक़तों की हिम्मत अफ़ज़ाई से वे काफी परेशान से लगते हैं। और उन्हें ख़दशा है कि देश की शांति कहीं और बिगड़ती न चली जाए। उनका मानना है कि भारतीयता ख़ूबियों का सम्मिश्रण है। इसका बखान वे अपनी ग़ज़लों में प्राय:करते हैं। और साथ ही साथ देशवासियों को सचेत भी करते हैं कि सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वालों से होशियार रहें। इसलिए वे बार-बार अपनी रचनाओं में भारत की परंपरा, तहज़ीब और तमद्दुन की वे याद दिलाते रहते हैं। हे राम! तू तो कल्याणकारी है। लेकिन क्यों तुम्हारे नाम पर बरादर ए वतन ने बवाल मचा रखा है? क्यों आज तेरा नाम आतंक का प्रतीक बन चुका है। शुरू से यह बात चली आ रही है-सियावर रामचंद्र की जय। लेकिन लोगों का उद्घोष ‘जय श्री राम’ दूसरों को डराता है। यह नाम कोई भयानक अनहोनी का संकेत होता है।
ए आर आज़ाद के इस आशार से आप उनकी बेचैनी को समझ सकते हैं:-
दुनिया के आबोहवा में ज़हर है
राम तेरा मैला अब ये शहर है
तू वह है जिसके नाम पे सब हुआ
नहीं तो फिर क्यों ख़ामोश अंबर है
तू चुप है वो निगल रहा वजूद को
देख वो इंसान है या अजगर है
कि तू वो नहीं जो दिखाया जा रहा
तेरे नाम का इस दिल में असर है
धर्म से खेल रहे हैं कई रावण
कि लंका दहन इतिहास में अमर है
दिखा रूप भेष बदले रावणों को
तेरा आदर्श-न्याय-सत्य अजर है
हमारा तुझसे है सवाल इसलिए कि
अब तेरे परचम के तले क़हर है
इतना ही नहीं ए आर आज़ाद अपनी ग़ज़लों में अपने देश के शानदार इतिहास को भी बतलाते हैं।
ज़िंदगी का ये कैसा मुक़ाम है
सुबह हुई और हो गई शाम है
अपनी नफ़रत को थोड़ी कम करो
बदलते वक़्त का ये पैग़ाम है
होती नहीं है हुक़ूमत किसी की
वही कभी ख़ास तो कभी आम है
मिलकर रहने के लिए बनी दुनिया
एक का नबी दूसरे का राम है
गंगा-यमुना की बहे है धारा
अमन का ये सबसे बड़ा धाम है
हिंदुस्तां की अपनी है कहानी
इस देश की मिट्टी एक इनाम है
कहां मिलेगा तुम्हें ऐसा सकूं
कि यहां लम्हा-लम्हा आराम है
उनके अंदर एक सवाल चलता है कि मोहब्बत भरा मुल्क आख़िर नफ़रत के अंधेरे में कैसे खोता जा रहा है? देश के हालात अंधेर नगरी चौपट राजा क्यों होते जा रहे हैं? ऐसे सवाल उनके अशआर के अहम हिस्से हैं। यह ग़ज़ल बानगी के तौर पर देखी जा सकती है:-
ऐ लोग समझ अब कौन संतापी है
जुमलेबाज़ बड़ा आज प्रतापी है
देख रहा है वतन लहूलुहान अपना
समाज का नव-निर्माता मायावी है
था आदमी बना दिया गया जानवर
खुद को जान मुँह पे तेरे जाबी है
चाहिए चुल्लूभर पानी मुसलमां को
वो इंसां नहीं शिया-सुन्नी-वहाबी है
हैसियत ये तेरी ख़ुदा भी समझता
भाग रहा जिधर दौलत की चाबी है
डर के बिगाड़ के सच न बोलता कभी
मिटने को आज बस इतना काफी है
हुक़ूमतों की दिलजोई हम क्यों करें
सच का जो हुनर रखे वो सहाफÞी है
इनकी ग़ज़लों पर आप ग़ौर करेंगे तो आपको पता चलेगा कि कुछ सवाल हर एक मन में कौंध रहा है। और शायर उन सवालों को लेकर परेशान है। पता नहीं, लगता है कोई तूफ़ान आने वाला है। हवादीस के झोंकों में सब बिखर जाने वाला है। वे हम वतनों से अपील करते हैं कि सोच-विचार करो। और अपने देश को बचा लो। मादरे वतन को लहूलुहान मत होने दो। सदियों से चली आ रही भाईचारा, समानता, प्रेम, न्याय और स्वतंत्रता को बचाए रखना है, तो फस्ताई ताक़तों के बढ़ते कदम को रोक दो। और उसके लिए भारतीय सदगुणों वाली विचारधारा को अपना लो।
आग के हवाले न कीजिए आज शहर को
तस्लीम करते हैं हम आपकी नज़र को
ऐ बादशाह! इल्तिजा छोटी-सी मेरी
सांस भर लम्हा अमान की मिले बसर को
यह बगिया है गंगा-जमुनी तहज़ीब की
ऐ बागवां! सींच दो मिल्लत के शजर को
छोटी सोच से कोई बनता बड़ा नहीं
वो बड़ा जो बड़ा माने ख़ुदा-ईश्वर को
ना इतराओ इतना भी हवा के रुख़ पे
जाकर देखो कभी समन्दर की लहर को
उनकी नज़र में और वास्तविकता में मानवता सबसे बड़ा धर्म है। लोगों की सेवा करना इबादत है। ख़िदमते ख़ल्क से अल्लाह की नुसरत होती है। लेकिन पता नहीं क्यों आज दुआओं में कोई असर नहीं है। शायद यह भौतिकवादी प्रवृत्ति का नतीजा है। लोग मालो दौलत की तरफ़ भाग रहे हैं। लेकिन उन्हें चैन नहीं आ रहा है। आज लोग एक दूसरे को भलाई नहीं करते नहीं दिखते। वे परोपकार नहीं करते। दूसरों से प्यार नहीं करते हैं। अत: खुदा उनकी दुआ भी नहीं सुनते। इस अशआर को इसी नुक्Þते नज़र से देखा जा सकता है:-
क्या हो गया इन दिनों मेरे शहर को
किसकी नजÞर लगी सुहाने मंज़र को
ख़ुशबुएं आती थीं मिल हवा के साथ
चमन से कर दिया गया जुदा शजर को
नफ़रत छुपी होती थी एक कोने में
उससे ही भर दी गई हर एक घर को
दिखता था दूर से भी वफ़ा के साथ
अब ख़ौफ़ से देखता दिल हर नज़र को
कोई इबादत भी काम आती नहीं
बद्दुआ ने छीना दुआ के असर को
ए आर आज़ाद वही लिखते हैं और बोलते हैं जो वे देखते हैं। वे अपनी ग़ज़लों में हादसों का शब्द चित्रण बख़ूबी करते हैं। वे हालात के शायर हैं और वक़्त की आवाज़ हैं।
आंखों के पास तमाशा पसरा ग़ज़ब है
क्या से क्या हो रहा फिर भी ख़ामोश लब है
ये वो वक़्त है जहां कोई अपना नहीं
ये वो दौर है जहां अब नफ़रत अदब है
टूटकर बिखर चुके पत्तों की मानिंद
अब भी ना होश आया मामला अजब है
कभी बरगद को छांव के क़ाबिल न समझा
आज सर पे पड़ी धूप उसी का सबब है
जगो, मिलकर उठो और एक आवाज़ दो
इंसान के लिए इंसानियत एक लकब है
मां जननी है। मां के कदमों तले जन्नत है। अनेकों शायरों ने मां की तारीफ़ में शेरों की झड़ियां लगा दी हैं। ए आर आज़ाद भी ‘मुनव्वर राणा’ की तरह मां की तारीफ़ में अक़ीदत पेश की है। इस ग़ज़ल पर ग़ौर फरमाएं :-
जो कह रहा हूं वो किताबों में भी बयां है
दुनिया में भी एक जन्नत है वो जन्नत मां है
परवरिश का चेहरा तारा बन झलकता है
खोजकर देखो मां सी पाठशाला कहां है
वो हो तो सकूं करता झुककर सलाम पल पल
उसके होने का मतलब मुट्ठी में जहां है
मां न होती तो फिर आज भाषा भी न होती
मां मुहब्बतों की मिठास लिए शीरीं ज़ुबां है
वो गुजर कर भी यादों से न कभी ओझल हो
औलाद की सरपरस्त सरापा पासबां है