शाश्वत कृष्णा
क्रोध, लोभ, मोहवश
मन में न हो कोई हवस,
पुण्य तुम अर्जित करो
प्रेम को अर्पित करो।
कलियुग का ये विस्तार है
वक़्त की पुकार है,
दुष्टों की ललकार है
दुष्टता को आज तुम तर्पित करो
मनुष्य हो मनुष्यता का
धर्म अब निभाना है,
भीतर बसे हर दानव को
मुक्ति द्वार दिखाना है
महामारी का प्रहार है
मनुष्य अब आहार है
डल रही आहुतियां
क्यों शेष अब विकार है
घृणा का अब अंत हो
प्रेम अब ज्वलंत हो
न शेष हो कोई विकार
प्रेम हो अंतिम प्रहार
दो गज की दूरी हो
किंतु ये शारीरिक हो,
राग- द्वेष की हानि हो
निश्चल हर प्राणी हो।
रोगों का नाश होगा
प्रेम और विश्वास होगा,
स्वर्ग-सा सुंदर कण-कण होगा
कलियुग का क्षय हर क्षण होगा…!