पढ़िए और समझिए कौन आ सकता है असम में?

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ए आर आज़ाद

देश के जिन पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं उनमें असम भी शामिल है। 2021 के इस विधानसभा चुनाव में 2016 से कुछ अलग माहौल और राजनीतिक समीकरण देखने को मिल रहा है। गठजोड़ और गठबंधन में भी नयापन है। इस चुनाव में दो नई पार्टियां सीएए के खिलाफ हुए जनआंदोलन से उपजी हैं। एक, असम जाति परिषद यानी एजेपी और दूसरी पार्टी रायजोड़ दल यानी आरडी। एजेपी का जन्म आसू यानी ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन से हुआ है। यही वजह है कि असम की जनता इसे हल्के में न लेकर चुनावी माहौल में गंभीरता से ले रही है। इसकी वजह भी है। दरअसल इसी आसू से निकली हुई पार्टी असम गण परिषद यानी एजीपी ने दो बार असम में सरकार बना चुकी है। आज भी वह भाजपा की जुनियर सहयोगी है।

गौरतलब है कि 2019-20 में जब असम में सीएए के खिलाफ जोरदार प्रर्दशन चल रहा था तो उसमें आसू पूरी तरह सक्रिय थी। सीएए विरोध के दौरान पुलिस के हाथों पांच प्रदर्शनकारियों की मौके पर ही मौत हो गई थी। इसका असर पूरे राज्य पर पड़ा था। इसी तरह आरडी यानी रायजोड़ दल का उदय एक किसान संगठन कृषक मुक्ति संग्राम समिति से हुआ। यही वजह है कि आरडी की किसानों के बीच अच्छी पकड़ है। किसानों के संगठन कृषक मुक्ति संग्राम समिति के प्रमुख अखिल गोगोई दिसंबर,2019 से जेल में बंद हैं। जेल में बंद अपने बेटे का चुनाव प्रचार उनकी 80 वर्षीय बूढ़ी मां प्रियदा गोगोई कर रही हैं।

अपनी जीत के प्रति एजेपी और आरडी दोनों दावा कर रही हैं। एजेपी का नेतृत्व एल गोगोई कर रहे हैं। वे यूनिवर्सल  बेसिक इंकम का वादा करते हुए सूबे के शिक्षित बेरोजगारों को पांच से दस हजार तक का मासिक भत्ता देने की बात कर रहे हैं। तो वहीं आरडी की जिम्मेदारी संभालने वाले भास्को डे सैकिया कहते हैं कि हमारे मूल संगठन के 12 लाख कार्यकर्ताओं का लाभ हमें मिलेगा।

सीएए पर बीजेपी पूरी चुप्पी साधे हुए है। एनआरसी और सीएए की कोई चर्चा बीजेपी नहीं कर रही है। जबकि 2016 के विधानसभा चुनाव में एनआरसी सबसे बड़ा मुद्दा था। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह हों या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी असम के इस विधानसभा चुनाव में एनआरसी सीएए के मुद्दे पर बचते हुए नजर आ रहे हैं।   जिसके बाद ये सवाल उठना लाजमी हो जाता है कि असम जाकर गृहमंत्री  एनआरसी और सीएए की चर्चा क्यों नहीं की। उन्होंने घुसपैठिए का जिक्र किया, लेकिन सीएए का नहीं। उन्होंने धारा 370 का जिक्र किया लेकिन एनआरसी का नहीं। उन्होंने बोडो शांति समझौते का जिक्र किया, राम मंदिर पर भी खूब बोले लेकिन एनआरसी और सीएए पर उनके हलक से एक भी शब्द नहीं टपके।

दरअसल एनआरसी बीजेपी के गले का फांस बन गया। असम में एनआरसी लिस्ट से 19 लाख लोग जो बाहर किए गए हैं, उनमें 12 लाख हिंदू बंगाली हैं। इसलिए बीजेपी सीएए और एनआरसी का जिक्र कर क्यों कहे आ बैल मुझे मार। दरअसल यह 12 लाख बंगाली हिंदू वोटर बीजेपी के ही वोटर हैं। इसलिए बीजेपी सीएए और एनआरसी का नाम लेकर उनके जख्म को हरा करना नहीं चाहती है। क्योंकि इससे लगभग 20 विधानसभा क्षेत्रों पर इसका सीधा असर पड़ेगा।

असम विधानसभा की 126 सीटों में सर्वाधिक विधानसभा क्षेत्रों पर मुस्लिम वोटरों का प्रभाव है। 2011 की जनगणना के मुताबिक वहां 34 फीसदी मुसलमान हैं। और यही वजह है कि इसबार भी हिंदू-मुस्लिम वोटरों का धुव्रीकरण होगा। जहां बीजेपी हिंदू वोटरों को लुभाने के लिए सांप्रदायिक कार्ड खेल रही है, वहीं बदरुद्दीन अजमल अपने भाषणों में बीजपी के आने से उत्पन्न खतरों का जिक्र करना नहीं भूलते। वे कहते हैं कि बीजेपी आ गई तो असम की मस्जिदें तोड़ दी जाएंगी। दरअसल असम की 40 सीटें ऐसी हैं जहां बदरुद्दीन अजमल की गहरी पैठ और पकड़ है।

पिछले विधानसभा चुनाव के नतीजों पर गौर करें तो 126 में से बीजेपी को 60 सीटें मिली थीं। और असम गण परिषद को 14 सीटें। कांग्रेस को 26 और बदरुद्दीन अजमल की पार्टी एआईडीयूएफ को 13 सीटें ही मिल पाई थीं। इस बार बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन में असम गण परिषद यानी एजीपी और युनाइटेड पीपल्स पार्टी लिबरल यानी यूपीपीएल शामिल हैं। वहीं कांग्रेस पार्टी के महागठबंधन में ऑल इंडिया युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट यानी एआईयूडीएफ, बोडो लैंड पीपल्स फ्रंट यानी बीपीएफ, आंचलिक गण मोर्चा,सीपीआई और सीपीएम शामिल हैं।

गौरतलब है कि बोडो लैंड फ्रंट, पीपल्स फ्रंट बीजेपी से नाता तोड़कर कांग्रेस गठबंधन में शामिल हुई है। बीजेपी के नेता अक्सर कहते हैं कि उन्हें मुस्लिम मतदाताओं की जरूरत नहीं हैं। लेकिन मुस्लिम वोट नहीं मिलने का जो साइड इफेक्ट है, उसका डर भी बीजेपी को अंदर ही अंदर परेशान कर रहा है।

बीजेपी के पांच साल के कार्यकाल में चाय बागान के दिहाड़ी मजदूरों की स्थिति बद से बदतर हो गई है। आपको जानकर हैरत होगी कि आज भी असम चाय बागान के मजदूरों को महज 167 रुपए की दिहाड़ी मिलती है। यह मजदूर पिछले पांच वर्षों से असम की बीजेपी सरकार से अपनी दिहाड़ी 351 रुपए करने की मांग कर रहे हैं। और सरकार से बागान में राशन-पानी मुहैया कराने के वादों को पूरा करने की मांग कर रहे हैं।

चाय जनजाति समुदाय मौजूदा बीजेपी   सरकार पर दिहाड़ी को लेकर वादा खिलाफी का आरोप लगाते हैं। दरअसल 2016 में जब बीजेपी की सरकार आई थी तो चाय मजदूरों को कई तरह के आश्वासन दिए गए थे जिसमें दिहाड़ी 351 रुपए करना, जमीन का पट्टा देना और एसटी का दर्जा देना शामिल था। दरअसल असम की 35-45 ऐसी सीटें हैं जिन पर चाय जनजाति समुदाय का वर्चस्व है। चाय जनजाति समुदाय के लोग भी कहते हैं कि कई बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी असम दौरे पर आए। चाय जनजाति को भरोसा दिया। लेकिन उन्होंने भी कोई वादे नहीं निभाए। लिहाजा केंद्र सरकार के इस बार के बजट में चाय बागानों के मजदूरों के लिए एक हजार करोड़ रुपये की विशेष योजना की घोषणा कब अमली जामा पहनेगी किसी को पता नहीं। क्योंकि न तो घोषणा से पेट भरता है और न ही 167 रुपए की दिहाड़ी से।