यह मिलन क़लम और स्याही की है

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उपेंद्र कुशवाहा की घर वापसी नीतीश के लिए वरदान

ए आर आज़ाद

बिहार की सियासत में एक बार फिर से रंग-रौगन का दौर शुरू हो गया है। गिले-शिकवे मिटाने का और, जो बीत गई सो बात गई, की तर्ज हर बुरे दौर को भुलाकर, एक होने की परंपरा, रवायत बनकर अब चलन में आ गई है। नीतीश कुमार से उपेंद्र कुशवाहा का मिलन कुछ ऐसा ही है। नीतीश अपने साथ उपेंद्र को मिलाकर लबकुश हो गए हैं। संयोग देखिए लव से कुश इसी मार्च महीने में अलग हुआ था। और इसी मार्च महीने में लगभग आठ साल के बाद फिर एक बार एक साथ सियासत की नई इबारत लिखने के लिए दोनों ने गले मिलते हुए हाथ मिला लिए। दरअसल बिहार की सियासत में कुर्मी और कुशवाहा का योग किसी भी विधानसभा में बाज़ी मारने के लिए एक अहम कड़ी मानी जाती है। बिहार में कुर्मी की जनसंख्या कम है। ज़ाहिर इसी अनुपात में कुर्मी वोटर भी हैं। नीतीश कुर्मी समुदाय से आते हैं और उपेंद्र कुशवाहा कोईरी बिरादरी से। एक अंदाज़ा के मुताबिक़ बिहार में कुर्मी की जनसंख्या लगभग 2.5 प्रतिशत है जबकि कोईरी, कुर्मी से लगभग चार गुणा से भी ज्यादा यानी 10.5 से 11.00 प्रतिशत तक हैं।

अब उपेंद्र कुशवाहा की घर वापसी के अपने-अपने राजनीतिक मायने हैं। अब इस मिलन से नीतीश को ज्यादा फायदा मिलता है या उपेंद्र कुशवाहा ज्यादा नीतीश से लाभ उठाते हैं यह तो आने वाले कुछ वक्त के बाद ही पता चल सकता है। लेकिन दोनों की सियासी हालात ही दोनों को गले मिलने पर मजबूर किए हैं। उपेंद्र कुशवाहा बीजेपी से अलग होने के बाद अपनी राह बनाने की क़वायद में नाकाम रहे। नतीजतन उन्होंने बिहार में महागठबंधन का दामन थामा। लेकिन वहां उनके लिए कोई खास जगह नहीं बन पाने की वजह से उन्होंने महागठबंधन का भी दामन छोड़ दिया। और एकला चलो रे के सूत्रवाक्य पर थोड़े आगे बढ़े लेकिन उनकी पार्टी 2020 के विधानसभा चुनाव के मद्देनजर हांफने लगी। फिर क्या था, उन्होंने अपने तरकश से एक तीर निकाली और निशाना ठीक बैठा। उनका असद उद्दीन ओवैसी की पार्टी से गठजोड़ हो गया। दोनों ने मिलकर चुनाव लड़े। असद उद्दीन ओवैसी सियासत में उपेंद्र कुशवाहा से तेज निकले। उन्होंने बिहार विधानसभा चुनाव में पांच सीट हासिल कर लिया और उपेंद्र कुशवाहा ज़ीरो पर बोल्ड हो गएं। यहीं से उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी रालोसपा में बवाल मच गया। टूट शुरू हो गई। कोई यहां भागा, कोई वहां।

नीतीश कुमार की भी इस चुनाव में कमर टूट गई। वह इस हालत में पहुंच गए कि सर उठाकर अपने सहयोगी से बात भी नही कर सकते। उनके साथ उनके सहयोगी ने दो डिप्टी सीएम देकर उनकी रफ्तार को थाम लिया। अब नीतीश की चिंता उपेंद्र कुशवाहा जैसे नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल करने की थी। कुशवाहा की मंशा को भांपने में उन्हें देर नहीं लगी। उन्होंने उपेन्द्र कुशवाहा को अपनी पार्टी में विलय कराकर घर वापसी करा दी। यह नीतीश की सियासी शऊर का ही नतीजा है कि उन्होंने कोईरी वोट पर फिर से अपना कब्जा जमा लिया, जिसका लाभ उन्हें आने वाले दिनों में अवश्य मिलेगा। दरअसल उपेंद्र कुशवाहा की कोईरी यानी कुशवाहा वोट पर जबरदस्त पकड़ है। और इसी पकड़ की वजह से नीतीश कुमार ने उन्हें इतना भाव भी दिया है। नागमणी भी इसी कोईरी यानी कुशवाहा बिरादरी से आते हैं लेकिन ज़रूरत से ज्यादा ख़ुदगर्ज होने के स्वभाव के कारण उनपर बिहार की जनता और नेता भरोसा नहीं कर पाते हैं। लेकिन उपेंद्र कुशवाहा का गुण नागमणी से उन्हें अलग करता है। और यही वजह है कि उपेद्र कुशवाहा का बिहार की राजनीति में अपना सम्मान है।

उपेंद्र कुशवाहा ने पार्टी का जेडीयू में विलय करते हुए नीतीश कुमार को अपना बड़ा भाई मान लिया। और स्पष्ट कर दिया कि वह नीतीश कुमार के नेतृत्व में काम करेंगे।

उपेंद्र कुशवाहा भी पार्टी बदलने में नागमणी से कम नहीं रहे। इन्होंने अपनी राजनीति की शुरूआत युवा लोकदल से की। फिर युवा जनता दल में चले गए। और फिर समता पार्टी को अपना सियासी आश्रय स्थल बना लिया। समता पार्टी के टिकट पर 2000 में चुनाव लड़ा। विधानसभा पहुंचे और पार्टी के उपनेता भी बने। जब जनता दल युनाइटेड बना तो इसमें नीतीश कुमार के साथ हो गएं। लेकिन 2005 के विधासभा चुनाव में उनकी करारी हार हो गई। जबकि जेडीयू और भाजपा की भारी जीत हुई। ज़ाहिर सी बात है कुछ शिकायतों के मद्देनज़र उन्होंने जेडीयू का दामन झटककर एनसीपी को अपना नया ठिकाना बना लिया।

कोईरी जाति पर मजबूत पकड़ के मद्देनजर नीतीश कुमार ने 2009 में एक बार फिर उपेंद्र कुशवाहा को जेडीयू में आने का न्यौता दिया। और 2010 में उन्हें राज्यसभा में भी भेज दिया। जेडीयू में शामिल होने के बाद अपनी ताक़त दिखाने की वजह से नीतीश से हुए तक़रार के बाद उन्होंने 3 मार्च, 2013 को नीतीश और उनकी पार्टी जेडीयू को अलविदा कह दिया। और अपनी नई पार्टी रालोसपा बना ली। और 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ सहयोगी बनकर चुनाव लड़ा। उनके कई सांसद जीते और उन्हें केंद्र में राज्यमंत्री बनने का भी सौभाग्य मिला। लेकिन उन्होंने बीजेपी का भी दामन छोड़ दिया और फिर महागठबंधन के साथ जुड़े लेकिन वहां भी तवज्जोह नहीं मिलने की वजह से 2020 का चुनाव असद उद्दीन ओवैसी के साथ मिलकर लड़ा लेकिन यहां इस समझौते ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा। असद उद्दीन ओवैसी इनसे मिलकर कामयाब रहे और उपेंद्र कुशवाहा के लिए यह मिलन महाघाटे का सौदा साबित हुआ।

अब जेडीयू में वापसी को आप घर वापसी कह लें या फिर बुरे वक्त में नीतीश की याद आना कह लें। लेकिन यह सच है कि जेडीयू में रालोसपा के विलय से एक दिन पहले तक उपेंद्र कुशवाहा सियासी तौर पर बड़े मुश्किल दौर से गुज़र रहे थे। उनकी पार्टी का न कोई एक विधायक रहा न कोई सांसद। साथी भी साथ छोड़कर, यहां वहां जाने लगे। ज़ाहिर ऐसे में उपेंद्र कुशवाहा ने जेडीयू के साथ नाता जोड़कर अपने सियासी शऊर का ही परिचय दिया है।