संजय कुमार सिंह
आदमी के पास वह दुख है,जो तुम्हें नहीं दिखेगा
हंसती हुई खनखनाती दुनिया में
कोई उदास कोना कहां दिखता है
उत्सव के अथाह समुद्र में नहाए हुए लोगों को
प्यास से मुरझाए चेहरों का पीलापन
भूख, अभाव, गरीबी और बेबसी कहां दिखती है !
भीड़ से कुचली हुई आत्मा का अकेलापन
मन के एकांत में पसरा सन्नाटा
औनाती हुई विकल इच्छा …
कौन देखता है, जो तुम देखोगे?
सुबह लॉन में आयाचित जल के फुहारे से
खिले हुए
फूलों के बीच टहलते हुए
तुम धूप से जले खेतों के उल्लास पर बिखरी राख को
कैसे देख सकते हो,
कैसे देख सकते मेले-ठेले में ठिसुआए
उन अभागे बच्चों के हृदय पर पड़ती चोटों को
फूलझड़ियां छोड़ने वाले खिलौने और घुघनी-जलेबी से महरूम
जो
खुद भविष्य के उजाड़ खेतों में
कफन ओढ़े बिजूके की तरह खड़े हैं,
आत्महत्या करने वाले उन किसानों
और
मजदूरों के परिजनों की व्यथा को
रकम करते बैंकेों के सारे महान कर्ज हवाई उड़ान
और
हीरे की चमक में एक दिन खुद खो जाएंगे।
वायदों के भूल भुलैयों से होकर
हम जब फिर रास्ते पर आएंगे
तो फिर उन्ही भूल-भुलैयों से गुजरेगी हमारी आस्था
हम व्यवस्था की नई कमीज पहन कर अपने भीतर दिल में घाव लिए/सुलगते सवालों के साथ पिछली बातों को शायद भूल जाएंगे
या भूलने पर विवश कर दिए जाएंगे
लेकिन सच्चाई यही है
कि वह आदमी जो दुनिया से उदास
अपनी मजबूरियों को पीठ पर लादे हुए जा रहा है
पगडंडियों पर डूबते सूरज के साथ तुम्हारी नजरों के पार
उसके बारे में सोचने का वक्त कहां है तुम्हारे पास !
लालकिला, ताजमहल, कुतुब मीनार
और
विचारें के अनगिनत पहाड़ों से गिरते हुए फब्बारों के बारे में
उस आदमी से राय पूछना टी.वी.के रूपहले पर्दे पर
लोक-तंत्र की संवैधानिक प्रस्तावना के साथ
मजाक नहीं ,तो और क्या है…
कहना मुनासिब होगा
कि स्वप्न के अनंत लोक को लूट कर लौटते लोगों से
अपनी पथरायी आंखें दिखाकर हिसाब मांगना
कुछ मसखरों से झुटपुटे सांझ में रास्ता पूछने की भूल तो है,
जो पांव के छालों के दर्द को आत्मा तक उतार देती है
मगर
तुम्हारी मसखरी को
इससे क्या फर्क पड़ता है
कोई रोए कि कब्र में जाकर सोए?
तुम जानो तो सही
इस सत्याग्रह की ऊब को
कि नमक खाने में जो मज़ा है
वह नमक की झील पर चलने में नहीं ,
फिर भी तुम्हारा यह नाटक
कि हम पराए नहीं हैं
तुम हमारे बारे में सोचते हो
कि भूख और गरीबी तुम्हारे एजेंडे में हैं
लगातार मोहभंग के बीच
एक नई सरकार की तामीर करती लोक-तंत्र की वह उम्मीद है
जो
तुमसे कम इस वक्त से ज्यादा जली हुई है
वैसे तुम ठीक सोचते हो
कि वह आदमी जिंदगी से तंग होकर
जाएगा, तो जाएगा कहां
घूम-फिर कर
अपनी बीबी
और बालिग उत्तराधिकारियों के साथ
अगले चुनाव में भी वोट गिराने आएगा
है न?
2.
मुद्दत से आवारा सड़कों पर चलते हुए
एक सभ्य-शालीन पोशाक में छिपा तुम्हारा भेड़िया
आदमी के शिकार में इतना माहिर है
कि सब हो जाता है, पर आईने में कुछ नहीं दिखता।
3.
हद हो गई
कुछ लोग
सब्र की
इन लाशों के उठने का
इंतजार करते हुए यह सोच रहे हैं कि दिन बदलेंगे…
सम्प्रति- प्रिंसिपल, पूर्णिया महिला कॉलेज पूर्णिया-854301