इस बयान का नशा 2019 के लोकसभा चुनाव तक तो धमाकेदार असर किया। परिणाम चौंकाने वाले हुए। 303 सीटों के साथ बीजेपी ने धमाल मचा दिया। अमित शाह का जादू चल गया और नरेंद्र मोदी के पीछे के सारे वे आरोप धुल गएं, जिन आरोपों के मद्देनज़र क़यास लगाए जा रहे थे कि मोदी का दोबारा सत्ता में आना उतना आसान नहीं है। लेकिन बीजेपी के महान रणनीतिकार अमित शाह का रणनीतिक जादू लोकसभा के 2019 के हुए चुनाव के बाद चल नहीं सका।
राजीव रंजन नाग
देश की राजनीति में बीजेपी एक क़द्दावर पार्टी बनकर उभरी है। इसका ये उभार समय और परिस्थिति के मुताबिक़ अपना आकार भले बदलता रहा हो लेकिन उसकी अपनी अहमियत देश में बरक़रार है। बीजेपी ने कांग्रेस मुक्त शासन का जो नारा दिया था,उसमें वो कामयाब होती रही। लेकिन ज्यों ही अमित शाह ने दावे किए तो किसी ने अतिशयोक्ति क़रार दिया तो किसी ने इसे बड़े हल्के में लेते हुए इसे इग्नोर ही कर दिया। लेकिन यह दावे कुछ ही दिनों के बाद पार्टी पर ही भारी पड़ने लगे। इस बयान के बाद राज्यों से बीजेपी सिमटती और खिसकती चली गई। अब इस साल देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। अमित शाह के लिए अग्निपरीक्षा भी है और बीजेपी के लिए 50 साल तक कांग्रेस की तरह पंचायत से लेकर संसद तक शासन करने के दावे को पूरे करने की चुनौती भी है। बहरहाल इस व़क्त पड़ताल करने की ज़रूरत ये है कि 2014 में कहां बीजेपी थी और दो बार के लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक जीत दर्ज कर राज्यों के मामले में आज बीजेपी कहां हैं?
इस समय हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश, गुजरात, गोवा, अरुणाचल प्रदेश, असम, कर्नाटक, मणिपुर, त्रिपुरा में बीजेपी की सरकार है। बिहार में उनकी गठबंधन सरकार तो है लेकिन मुख्यमंत्री उनके दल के नहीं हैं। वहां जेडीयू के नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं। यानी कुल बारह राज्यों पर ही फिलवक़्त बीजेपी का क़ब्ज़ा है। बाक़ी राज्यों में राजस्थान, पंजाब, छत्तीसगढ़ और पुदुच्चेरी कांग्रेस के पास है।
क्षेत्रीय दलों के पास जो राज्य हैं उनमें आंध्र प्रदेश है। आंध्रप्रदेश वाई एस जगनमोहन रेड्डी की पार्टी वाईएसआर के पास है। वहीं ओडिशा नवीन पटनायक की पार्टी बीजद के पास है। पश्चिम बंगाल ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस के पास है। केरल माकपा के पास है। झारखंड जेएमएम के पास है। तमिलनाडू अन्ना द्रमुक के पास है। तेलंगाना चंद्र्रशेखर राव के पास है। दिल्ली ‘आप’ के पास है। महाराष्ट्र शिवसेना के पास है। मिज़ोरम एमएनएफ यानी ज़ोरामथंगा के पास है। मेघालय एनपीपी के पास है। वहां के सीएम कॉनराड संगमा हैं। सिक्किम एसडीएफ़ के पास है और उसके सीएम पवन कुमार चामलिंग हैं। जम्मू और कश्मीर में राष्ट्रपति शासन है।
यानी देश के बारह राज्यों पर बीजेपी का क़ब्ज़ा है। चार पर कांग्रेस का प्रभुत्व है। एक सूबा में सीपीएम अपना परचम लहरा रही है। बाक़ी सभी राज्यों पर क्षेत्रीय क्षत्रपों का राज है। यानी तीन राष्ट्रीय दलों का इस समय 17 सीटों पर आधिपत्य है। जबकि बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, तमिलनाडू, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, दिल्ली, महाराष्ट्र, मेघालय, नागालैंड, सिक्किम और मिज़ोरम जैसे 13 राज्य व केंद्र्रशासित प्रदेश क्षेत्रीय दलों के खूंटे में बंधे हैं। जम्मू और कश्मीर ‘अहिल्या’ की मूरत बनकर राष्ट्रपति शासन से मुक्ति की बाट जोह रहा है।
लोकसभा से मचलती हुई सत्ता में आई बीजेपी राज्यों को अपनी मुट्ठी में कै़द करने की लपलपाती नज़र से आगे बढ़ती चली गई। दरअसल भाजपा ने जिस मुक़ाम पर राजनीतिक सांप सीढ़ी का खेल खेला, उस समय उसके पास सात राज्य थे। यानी 2014 में बीजेपी की मुट्ठी में सात राज्य थे। फिर 2015 में उसके पास नौ राज्य हो गएं। 2016 में 11 राज्यों पर अपना प्रभुत्व क़ायम कर लिया। अगले साल तीन राज्य का और पार्टी ने इज़ाफ़ा किया। यानी 2017 में भाजपा के हिस्से में 14 राज्य हो गए। और मार्च, 2018 देखते-देखते बीजेपी का 21 राज्यों पर क़ब्ज़ा हो गया। और यहीं से अमित शाह का ़गुरूर परवान चढ़ा और सितम्बर, 2018 में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में अपने कार्यकर्ताओं को उस ़गुरूर का सुरुर देते हुए कह दिया कि बीजेपी 2019 के लोकसभा चुनाव को फ़तह कर लेती है तो वह 50 सालों तक कांग्रेस की तरह पंचायत से लेकर संसद तक शासन करेगी। इस बयान का नशा 2019 के लोकसभा चुनाव तक तो धमाकेदार असर किया। परिणाम चौंकाने वाले हुए। 303 सीटों के साथ बीजेपी ने धमाल मचा दिया। अमित शाह का जादू चल गया और नरेंद्र मोदी के पीछे के सारे वे आरोप धुल गएं, जिन आरोपों के मद्देनज़र क़यास लगाए जा रहे थे कि मोदी का दोबारा सत्ता में आना उतना आसान नहीं है। लेकिन बीजेपी के महान रणनीतिकार अमित शाह का रणनीतिक जादू लोकसभा के 2019 के हुए चुनाव के बाद चल नहीं सका। नतीजतन बीजेपी के हिस्से से एक के बाद एक राज्य निकलते चले गए। उसी का नतीजा है कि आज बीजेपी 21 से सीधे 12 राज्यों पर आकर सिमट गई है। यानी 21 अचानक 12 हो गया। अंक वही रहे सिर्फ़ अंक के स्थान बदलते ही बीजेपी के 50 साल तक के शासन करने वाले सारे दावे और उनकी सारी भविष्यवाणियां गर्त में जाती दिखने लगी। बीजेपी के साथ राजनीतिक सांप सीढ़ी का ही यह खेल साबित हुआ। नतीजतन 21 से बाइस होने की जगह 21 से 12 होकर रह गई।
ग़ौर करने वाला पहलू ये भी है कि साल 2017 के जाते-जाते बीजेपी की हु़कूमत 71 फीसदी भू-भाग पर थी। लेकिन लोकसभा में भारी-भरकम परिणाम के बोझ तले दबी बीजेपी की कमर नवम्बर, 2019 आते-आते इतनी झुक गई कि उसकी हु़कूमत की परिधि घटकर 40 फीसदी पर सिमट गई। यानी अमित शाह का ज़ोर-शोर से किए गए दावे की एक ही साल में हवा निकल गई। बीजेपी का पहिया एक ही साल में पंचर कर गया। ज़ाहिर सी बात है बीजेपी के पास अब भी सर्वाधिक राज्य हैं। उस नतीजे में उनके पास विधायकों की तादाद काफी बड़ी है। कांग्रेस के मुक़ाबले उनके पास लगभग 480 विधायक ज़्यादा हैं। कांग्रेस के पास 846 विधायक हैं तो बीजेपी के पास 1326 विधायक हैं। फीसदी में इसकी गणना की जाए तो कुल विधायकों का 32 फीसदी बीजेपी के पास है। जबकि कांग्रेस के पास बीजेपी से 12 फीसदी एमएलए कम हैं। लेकिन फिर भी भाजपा के कांग्रेस मुक्त शासन के सपने को तोड़ती हुई दूसरे नंबर पर बनी हुई है। क्षेत्रीय दलों के पास सबसे ज़्यादा विधायक हैं। प्रतिशत की भाषा में कहा जा सकता है कि 43 फीसदी विधायक विभिन्न क्षेत्रीय दलों के क़ब्ज़े में हैं। और पांच प्रतिशत विधायक या तो निर्दलीय हैं या फिर वहां सीटें खाली हैं।
अब सवाल उठता है कि लोकसभा में जनता की नब्ज़ को सही तरीके़ से पकड़ने वाले बीजेपी के धाकड़ रणीनीतिकार विधानसभा के वोटरों का नब्ज़ पकड़ने में गच्चा क्यों खाते जा रहे हैं? इसे समझने के लिए किसी एक राज्य या केंद्र्रशासित प्रदेश का उदाहरण लिया जा सकता है। केंद्र की सरकार दिल्ली में है। इसलिए केंद्र्र शासित प्रदेश दिल्ली का ही उदाहरण पेश करना यहां समीचीन लग रहा है। बात 2014 की। नरेंद्र्र मोदी का जलवा और जादू सर चढ़कर बोल रहा था। नतीजे में बीजेपी ने 46.4 फीसद वोट लाकर दिल्ली की सातों सीटों पर क़ब्ज़ा जमा लिया। उस लोकसभा चुनाव में आम आदमी की सरकार थी। और उस पार्टी को महज़ 32.90 फीसद ही वोट मिल पाए थे। कांग्रेस की स्थिति अजब-ग़ज़ब वाली रही। उसे महज़ 15.10 फीसद वोट से ही ‘संतोषं परम सुखम’ के सिद्धांत पर संतोष करना पड़ा।
अब लोकसभा चुनाव के बाद जब 2015 में दिल्ली विधानसभा चुनाव का रिज़ल्ट सामने आया तो बड़ा चौंकाने वाला साबित हुआ। भाजपा के हाथों से सीटें ही नहीं फिसलीं बल्कि उसे 12.43 फीसदी वोट का भी बड़ा नुक़सान हो गया। उसके वोट महज़ 32.03 फीसद रह गए। लेकिन ‘आप’ ने 32.90 से शेयर बाज़ार की तरह उछाल मारते हुए 54.3 फीसद पर आकर विराम लिया। यानी बीजेपी को 12.43 फीसदी वोट प्रतिशत का घाटा हुआ तो आप को 22 फीसद मतों का इज़ाफ़ा।
ग़ौर करने वाली बात है कि 2015 विधान सभा चुनाव के चार साल बाद जब 2019 में लोकसभा का चुनाव हुआ तो बीजेपी ने 2014 के लोकसभा वोट प्रतिशत के ग्राफ़ को भी पार करती हुई दिल्ली में 56.58 फीसद वोट लाकर आम आदमी पार्टी को महज़ 18 फीसदी वोट पर ही रोक दिया। और दिल्ली की सभी सातों सीटों पर पहले की तरह अपना क़ब्ज़ा जमा लिया।
आम आदमी पार्टी ने फिर एकबार बीजेपी से तब बदला ले लिया जब 2020 में दिल्ली विधानसभा का चुनाव हुआ। और हर तरह की रणनीति के बावजूद बीजेपी के रणनीतिकार अमित शाह का सपना एक बार फिर चूर-चूर हुआ। और भाजपा की दिल्ली में इतनी रूसवाई हुई कि वह किसी के भी कल्पना से बाहर की बात थी।
अब सवाल है कि जिन लोगों को जनता राष्ट्रीय मामलों का एक्सपर्ट मानती है, उन्हें क्या स्थानीय मुद्दों में नासमझ ही क़रार देती है? दिल्ली के चुनाव ने भी यही संदेश दिया। झारखंड का नतीजा ने भी चीख़कर यही कहा। महाराष्ट्र का परिणाम ने भी कुछ ऐसा ही इशारा किया। अब सवाल उठता है कि क्या बीजेपी के लोकसभा के रणनीतिकार विधान सभा चुनावों के मर्म को समझने में कई बार से लगातार धोखा तो नहीं खाते जा रहे हैं?
विधानसभा में इनकी रणनीति की असली और अगली समीक्षा बंगाल और बा़की चार राज्यों में हो रहे चुनाव नतीजे के बाद एक बार फिर नए सिरे से होगी। तब तक के लिए इंतज़ार करना ही सही होगा।