कोरोना में ऑक्सीजन क्यों है संजीवनी?

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ए आर आज़ाद

देश में कोरोना की दूसरी लहर ने तबाही मचा दी है। नतीजतन कोरोना मरीजों के लिए ऑक्सीजन एक विकट समस्या बन गई है। जिन राज्यों में कोरोना के मामले ज्यादा तेजी से पांव पसार रहे हैं, वहां ऑक्सीजन की किल्लत इंसान का दम तोड़ रहा है। वहां की सरकारें ऑक्सीजन की क़िल्लत से बेबस दिख रही है। और जब जनता में यह बात आग की तरह फैलती है कि अस्पतालों में ऑक्सीजन की क़िल्लत से इतने मरीज़ों ने दम तोड़ दिया तो फिर समाज में एक अलग तरह का मैसेज जाता है, उसी नतीजे में समाज में कोरोना की भयावह स्थिति और उसके इलाज को लेकर भयंकर भ्रम की स्थिति फैल जाती है।

दरअसल इस समय देश के कम से कम 14 ऐसे राज्य व केंद्र शासित प्रदेश हैं जहां कोरोना ने लौटकर वहां के लोगों की ज़िंदगी को बुरी तरह प्रभावित करना शुरू कर दिया है।

महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली, झारखंड और बिहार शामिल हैं। यानी बिहार, दिल्ली और पंजाब ऑक्सीजन निर्मित करने वाले राज्य नहीं हैं। यानी इन्हें अपने पड़ोसी राज्यों से ऑक्सीजन के लिए हाथ जोड़ना पड़ता है। जैसे दिल्ली में कोई ऑक्सीजन प्लांट अभी तक नहीं है। ऑक्सीजन के मामले में दिल्ली पूरी तरह हरियाणा और उत्तर प्रदेश पर निर्भर रहती है। उसी तरह बिहार में कोई ऑक्सीजन प्लांट नहीं लगाए गएं। पिछले 16 सालों से बिहार या तो झारखंड पर निर्भर है, उड़िशा पर निर्भर है, असम पर निर्भर या पश्चिम बंगाल पर निर्भर है। उसी तरह पंजाब, हरियाणा पर निर्भर है। क्योंकि पंजाब में ऑक्सीजन निर्माण शुरू नहीं हुआ है। और हरियाणा में भी एक ही प्लांट है। वह जरूरत पड़ने पर खुद के लिए रखे, दिल्ली को दे, पंजाब को दे?  यह एक बड़ा सवाल है।

दरअसल 1990 के बाद केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारों की शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में कोई रुचि नहीं रही। उन्होंने स्वास्थ्य की जगह सौंदर्यता पर ध्यान दिया। पार्क निर्माण कराएं। हजारों करोड़ मूर्तियां निर्माण में खर्च किए। अपने पार्षदों,विधायकों, और सांसदों से लेकर मंत्री तक के वेतन और उनके अपार सुख-सुविधाओं और विलासिता पर पूरा ध्यान केंद्रित किया। नतीजे में कुछ बजट को कम करना पड़ा। वो बजट कम किया गया देश की सबसे बड़ी ज़रूरतों में से। यानी शिक्षा और स्वास्थ्य में से। आप केंद्रीय व राज्यों के बजट पर नजर डाल लें आपको शिक्षा और स्वास्थ्य उस बजट में हाशिए पर दिखेगा। जाहिर सी बात है जब सरकार आपस मिलकर शिक्षा और स्वास्थ्य को खा जाने की षडयंत्र करे तो फिर उसे कौन बचा सकता है? यह एक यक्ष प्रश्न है। और इसका जवाब न जनता जानना चाहती है और न ही देश के नेता देने को बाध्य हैं। देश के नेता जानते हैं कि जनता एक दुधारू वोटर है। उसे चारा दिखाकर दूध दूह लेना है। दूध दूहने के बाद यानी वोटिंग के बाद वो जी रही है या मर रही है, उसकी सुध और खोज ़खबर लेने की जरूरत भी क्या है?

बहरहाल कोरोना ने भारत में भयंकर तबाही मचाई है। इस तबाही में अबतक 20 लाख से ज्यादा एक्टिव मामले सामने आए हैं। और सबसे चौकाने और चौकन्ना करने वाली बात यह है कि कोरोना से अबतक एक लाख 78 ह्जार से कुछ ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है।

इस तरह की मौत में अस्पतालों में दवा और विशेष इंतजाम के साथ-साथ ऑक्सीजन की कमी भी एक बहुत बड़ा मौत का कारण बना हुआ है। महाराष्ट्र में कोरोना से भयंकर तबाही मची हुई है। और इसका दुखद पहलू यह है कि महाराष्ट्र वह प्रदेश है, जहां सबसे ज्यादा ऑक्सीजन के प्लांट हैं। यानी महाराष्ट्र में ऑक्सीजन के सात प्लांट हैं। लेकिन वहीं ऑक्सीजन की सबसे ज्यादा कमी का मामला सामने आ रहा है। इस किल्लत से सिर्फ महाराष्ट्र ही नहीं जूझ रहा है। बल्कि 13 राज्य और एक केंद्र शासित प्रदेश भी इसी भयंकर त्रासदी का शिकार होकर ऑक्सीजन की समस्याओं से जूझ रहा है। अस्पतालों में ऑक्सीजन बेड की कमी तो है ही, ऑक्सीजन सिलेंडरों की भी खूब कमी नजर आ रही है। नतीजतन जीवन दायक ऑक्सीजन अस्पतालों में पर्याप्त नहीं होने की वजह से अस्पताल से सीधे लोग श्मशान और कब्रिस्तान पहुंच रहे हैं। परिजन बेबस होकर आंसू बहाने के अलावा कुछ कर भी नहीं पा रहे हैं।

इसके कुछ उदाहरणों से ही इस भयंकर त्रासदी को समझा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल है। भोपाल के एक अस्पताल में कथित तौर पर ऑक्सीजन की कमी से लगभग छह लोगों को अपनी जानें गंवानी पड़ीं। इसी तरह मीडिया रिर्पोट पर जब आप गौर करते हैं तो पता चलता है कि भोपाल ही की तरह मुंबई में भी ऑक्सीजन की कथित कमी के कारण सात लोगों की मौत हो गईं। समझने की बात है कि जब मुंबई और भोपाल जैसे बड़े शहरों में ऑक्सीजन की किल्लत से मौत हो रही हों तो फिर देश के पिछड़े सूबों और गांव देहात का क्या हाल होगा? उन्हें कहां से ऑक्सीजन प्राप्त हो रहा होगा। और वहां जो मौतें हो रही हैं, संभव है कि वह भी ऑक्सीजन की कमी की वजह से हो रही होंगी, इस बात का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।

अब हम आपको बताते हैं कि महाराष्ट्र में सात ऑक्सीजन के प्लांट हैं, जो किसी भी सूबे में सबसे ज्यादा प्लांट होने का गौरव रखता है। बावजूद उसके महाराष्ट्र में ऑक्सीजन की ़िकल्लत बढ़ती ही जा रही है। दरअसल हमारे देश का दुर्भाग्य है कि हर विपदा की स्थिति में जिस चीज की मांग की संभावना होती है, उसकी कालाबाजारी शुरु हो जाती है। उसे मुनाफे के लिए गोदामों में भरकर डाल दिया जाता है। और उस समय का इंतजार किया जाता है, जब मामला उफान पर हो। और हर कोई जान की कीमत के लिए अनाप-शनाप पैसे देने की स्थिति में हो।

दरअसल जैसे कोरोना के प्रकोप का प्रचार टीवी और सोशल मीडिया से लेकर सरकारी महकमें की ओर से होना शुरू हो गया और जैसे लोगों को पता चला कि कोरोना के पेसेंट के लिए दवा से ज्यादा ऑक्सीजन की ज़रूरत होती है, यह पता चलते ही मुनाफाखोरी और काला बाजारी का चलन तेजी के साथ शुरू हो गया। नतीजे में बहैसियत लोग अनाप-शनाप पैसे देकर भी अपने और अपने परिजनों के लिए अपने पास सिलेंडर के इंतजाम कर लिए हैं। नतीजे में अस्पतालों में जरूरतमंदों के लिए सिलेंडरों की कमी हो गई है। और इस कमी की वजह से ही कई अस्पतालों में मरीज दम तोड़ रहे हैं।

कोरोना से पहले तक ऑक्सीजन का इस्तेमाल मेडिकल क्षेत्रों में बहुत कम होता था। यानी उत्पादन का लभगग 15 फीसदी ही मेडिकल के लिए इस्तेमाल होता था। और इस तरह की ऑक्सीजन को लेकर कभी भी आफत और हाय-तौबा भी नहीं मची थी। लेकिन 2020 में कोरोना के भारत में दस्तक देते ही मेडिकल क्षेत्र में भी ऑक्सीजन का द़खल और जरूरत बढ़ गई। 2020 के सितम्बर आते-आते इसकी मांगों में काफी इजाफा देखा गया। पिछले साल कोरोना के पीक पर रहने के दौरान ऑक्सीजन की मांग 3000-3200 मिट्रीक टन रोजाना हो गई थी। लेकिन जैसे-जैसे हालात सुधरे और कोरोना ने धीरे-धीरे भारत से अपना पांव पसारना शुरू किया तो इसकी मांग भी धीरे-धीरे तेजी के साथ कम होने लगी। लेकिन जैसे ही मार्च से दोबारा कोरोना ने भारत में दस्तक दिया तो फिर से ऑक्सीजन की मांग अपने चरम पर हो गई। अभी तक ऑक्सीजन का 85 फीसदी हिस्सा उद्योगों में खपत होता रहा है। लेकिन अब कोरोना के पीक पर फिर से आ जाने से इसकी खपत उत्पादन से भी अधिक बढ़ गई है। यानी जितना भारत के लगभग छोटे-बड़े पांच सौ प्लांटों की उत्पादन क्षमता है कहीं उससे ज्यादा इसकी मांग होने लगी है। यही वजह है कि महाराष्ट्र में सर्वाधिक सात मैन्युफैक्चिरिंग प्लांट होने के बावजूद वहां ही ऑक्सीजन की सबसे ज्यादा किल्लत महसूस की जा रही है।

दरअसल महाराष्ट्र में रोजाना 1200 टन ऑक्सीजन तैयार होता है। और अभी के हालात के मुताबिक इस सूबे को रोजाना कम से कम 1500 से 1600 सौ टन ऑक्सीजन की जरूरत है। इसकी कमी को दूर करने के लिए अपनी जनता की उपलब्धता को बरकरार रखने के लिए राज्य सरकार दूसरे सूबों की तरफ मुंह देख रही है। और वहां से लाने की कोशिश कर रही है।

महाराष्ट्र जैसी स्थिति ही उन राज्यों में भी है, जहां कोरोना ने अपना कहर बरपा दिया है। वहां भी मांग आपूर्ति से अधिक है। इस बात की तस्दीक ऑक्सीजन रिफिल प्लांट चलाने वाले भी करते हैं। यानी मांग 500-600 सिलेंडर की रोजाना है लेकिन ये रिफील प्लांट वाले 250 से 200 सिलिंडर ही दे पा रहे हैं। दरअसल इसके पीछे वजह भी है। लिक्विड ऑक्सीजन को हैंडिल और व्यवस्थित करना सबके बस की बात नहीं है। इसके लिए पेशेवर लोग ही होते हैं। क्योंकि ऑक्सीजन की लीकेज भी एक बहुत बड़ा मुद्दा होता है। एक्सपर्ट के मुताबिक लगभग 20 फीसदी ऑक्सीजन भरते समय या भरने के बाद लीक हो जाती हैं। दूसरी बात है कि इसे एक जगह से दूसरे जगह ले जाना भी आसान नहीं है। इसकी खेप को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाना भी आसान नहीं है। दरअसल इसे संभालकर टैंकरों से ले जाना पड़ता है। टैंकर की स्पीड 40 घंटा प्रतिकिलोमीटर से अधिक होने पर एक्सीडेंट का खतरा मंडराता है। दूसरी बात यह है कि एक टैंकर को प्लांट से रिफील करने में त़करीबन तीन घंटे का समय लगता है। यह समय और ले जाने की दूरी दोनों ऑक्सीजन की ज़रूरतों को वक्त पर पूरा होने देने में बाधक बन रहा है। उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र को ही लेते हैं। वहां सात प्लांट हैं। लेकिन प्लांट महाराष्ट्र से काफी दूर हैं। यानी एक प्लांट नागपुर में है तो नागपुर से मुंबई आने में टैंकर को 15 घंटे लग जाते हैं। उसी तरह पुणे से 18 घंटे लग जाते हैं और नांदेड़ तक टैंकर को पहुंचने में 25 घंटे का वक़्त लग जाता है। अब आप मान लें कि देश में ऑक्सीजन की किल्लत नहीं है। लेकिन जिस सूबे में ऑक्सीजन प्लांट नहीं है, उसे दूसरे राज्योें पर निर्भर होना पड़ता है। अगर उस राज्य की एक दूसरे से प्लांट तक की दूरी अधिक है तो जाहिर सी बात है कि अगर आपदा प्रबंधन कौशल का इस्तेमाल पीड़ित सूबा ने नहीं किया है तो फिर वह अपने नागरिकों की मौत के साथ ही खेलेगी। क्योंकि ठीक जरूरत के समय उसकी आपूर्ति की मांग करने पर अस्पतालों तक पहुंचने और फिर एक टैंकर को रिफील करने में समय लगेगा। उदाहरण के तौर पर बिहार को अगर ऑक्सीजन की खेप चाहिए तो उसे झारखंड की गुहार लगानी होगी। उससे मदद लेनी होगी। यानी पटना से बोकारो और जमशेदपुर की दूरी तकरीबन 600 किलोमीटर है। और टैंकर की रफ्तार 40 किलोमीटर प्रति घंटा है तो उसे पटना पहुंचने में कम से कम 15 घंटे लगेंगे। और तीन घंटे प्लांट से एक टैंकर को रिफिल करने में और फिर उस टैंकर को खाली कराने में भी लगभग तीन घंटे लगेंगे। यानी आपका 24 घंटे का समय निकल जाता है। और कोरोना के मरीज ऑक्सीजन का इंतजार 24 घंटों तक नहीं कर पाते हैं। नतीजे में मौत और श्मशान व ़कब्रिस्तान नियति बन जाती है।

इसी तरह यह मान लिया जाए कि ज़रूरत से ज्यादा ऑक्सीजन की मांग अगर बढ़ गई तो फिर दूरवर्ती प्लांटों का सहारा लेना पड़ेगा। तो फिर वहां से उसकी पहुंचाने की क्षमता भी कोरोना मरीजों के लिए घातक ही होगी न। यानी समय पर जरूरतमंदों का इलाज नहीं हो पाएगा। और तब मृत्यु दर का तेजी से बढ़ना भी लाजमी हो जाएगा। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। मान लीजिए कि देश में ऑक्सीजन की कमी नहीं है। और वह ऑक्सीजन राउल केला के हल्दिया स्टील प्लांट में मौजूद है। लेकिन उसे दूर तक पहुंचाने के लिए आम टैंकर कारगर नहीं होता है। उसके लिए क्रायोजेनिक टैंकर की जरूरत पड़ती है। मालूम हो कि मेडिकल ऑक्सीजन को सिलेंडर और लिक्विड में महज क्रायोजेनिक टैंकर के जरिए ही पहुंचाया जाता है। और इसे सुगमता से ले जाने के लिए एक खास तापमान पर भी रखा जाता है। एक्सपर्ट के मुताबिक क्रायोजेनिक टैंकरों में लिक्विड ऑक्सीजन को -183 डिग्री सेल्सियस पर रखा जाता है।

ऑक्सीजन की इस कमी को पूरा करने के लिए रेलवे ने भी कोशिश शुरू कर दी है। और इसी के मद्देनजर 19 अप्रैल यानी सोमवार को ऑक्सीजन एक्सप्रेस की शुरूआत कर दी है। यह पहली ट्रेन मुंबई के कालंबोली स्टेशन से खाली कंटेनर लेकर विशाखापट्टनम जाएगी और वहां से रिफ्लिंग के बाद वापस लौटेगी। सात डब्बे की यह खास ट्रेन 112 मीट्रिक टन मेडिकल ऑक्सीजन लेकर आएगी। यानी इस ट्रेन के हर एक कंटेनर में 16 मीट्रिक टन मेडिकल ऑक्सीजन होगा। रेलवे इस तरह की और भी ट्रेन जरूरत के हिसाब से चलाने का मन बना रही है।

अब हम सबसे अहम सवाल पर ग़ौर करते हैं कि कोविड मरीजों के लिए ऑक्सीजन क्यों जरूरी है? दरअसल हवा पानी की तरह मनुष्य के जीवन का एक अहम हिस्सा है। हम जो सांस लेते हैं, उसे हवा की जगह ऑक्सीजन कहते हैं। यह ऑक्सीजन आम तौर पर सभी मनुष्य व अन्य प्राणी हवा से प्राप्त करते हैं। यही ऑक्सीजन हमारी नाक व मुंह से होकर खून में शामिल होती है। यह कोशिकाओं तक पहुंचती है। यहां आकर एक रासायनिक प्रतिक्रिया होता है। यह रासायनिक प्रतिक्रिया ग्लूकोज के साथ मिलकर होती है। यह प्रक्रिया जीवन के लिए सबसे जरूरी प्रक्रिया है। अगर किसी मनुष्य के फेफड़े में कोई संक्रमण हो गया तो फिर ऑक्सीजन को खून में शामिल होने की प्रक्रिया में कठिनाई होने लगती है। और तब जाकर सांस ली गई ऑक्सीजन उसकी शारिरीक जरूरतों को पूरा करने में असक्षम हो जाता है। और तब जाकर मरीजों को बचाने के लिए शुद्ध ऑक्सीजन देने की जरूरत आन पड़ती है। इसे आसान शब्दों में इस तरह भी समझ सकते हैं कि फेफड़ों में नुकसान पहुंचने से खून में ऑक्सीजन लेबल कम हो जाता है। और तब ऑक्सीजन के जरिए इस कमी को पूरी की जाती है। इसे आप ऑक्सीजन थेरेपी भी कह सकते हैं। कोरोना, वायरस से पीड़ित के फेफड़ों पर असर डाल देता है। नतीजतन ब्लड ऑक्सीजन का लेबल नीचे चला जाता है। यही  वजह है कि इस बीमारी के लिए वैक्सीन नहीं होने के बावजूद इलाज के लिए ऑक्सीजन को बेहतरीन जरिया माना गया है।

और इस कमी को पूरा करने के लिए कभी-कभी ऑक्सीजन कांसन्ट्रेटर का इस्तेमाल किया जाता है। यह मशीन हवा के ऑक्सीजन को पियोरिफाई करता है और उसे शुद्ध करके मरीजों को पहुंचाता है। यह पद्दति आसान है। बावजूद इसके प्रयोग पर एक सहमति नहीं है। और इसे कोरोना मरीजों के लिए बेहतर भी नहीं माना जाता है। कोरोना के मामले में सिलेंडर और पाइपों के जरिए ही ऑक्सीजन देने को बेहतर और जीवन दायिनी माना जाता है। हालांकि कई डॉक्टरों का मानना है कि ज्यादा शुद्ध ऑक्सीजन भी मरीजों के लिए कई बार जोखिम भरा साबित होता है।

बहरहाल कोरोना मरीजों के लिए मेडिकल ऑक्सीजन की आपूर्ति बेहद जरूरी है। और देश में अभी तक कुल 17 राज्य व केंद्र शासित प्रदेश ही हैं, जहां ऑक्सीजन की मैन्युफैक्चिरिंग प्लांट हैं। यानी महाराष्ट्र में सात मैन्युफैक्चिरिंग प्लांट हैं। गुजरात में पांच मैन्युफैक्चिरिंग प्लांट हैं। नोर्थ इस्ट में तीन मैन्युफैक्चिरिंग प्लांट हैं। कर्नाटक में तीनमैन्युफैक्चिरिंग प्लांट हैं। केरल में दो मैन्युफैक्चिरिंग प्लांट हैं। तमिलनाडु में दो मैन्युफैक्चिरिंग प्लांट हैं। पश्चिम बंगाल में दो मैन्युफैक्चिरिंग प्लांट हैं। उत्तर प्रदेश में दो मैन्युफैक्चिरिंग प्लांट हैं। उत्तराखंड में दो मैन्युफैक्चिरिंग प्लांट हैं। झारखंड में दो मैन्युफैक्चिरिंग प्लांट हैं। हिमाचल प्रदेश में एक मैन्युफैक्चिरिंग प्लांट है। उड़िशा में एक मैन्युफैक्चिरिंग प्लांट है। हरियाणा में एक मैन्युफैक्चिरिंग प्लांट है। राजस्थान में एक मैन्युफैक्चिरिंग प्लांट है। तेलंगाना में एक मैन्युफैक्चिरिंग प्लांट है। पुडुचेरी में एक मैन्युफैक्चिरिंग प्लांट है।