शाह वलीउल्लाहः देश के वे महापुरुष, जिन्होंने देश के लिए संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया

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इंसानियत के पैरोकार और हिंदू-मुस्लिम, सिख, इसाई के सूत्रधार और पैरोकार अब्दुल मन्नान अब इस दुनिया में नहीं रहे। कोरोना ने 12 मई, 2021 को उन्हें लील गया। अब्दुल मन्नान मतलब मसीहा हुआ करता था। वे उन सब की खोज-ख़बर लेते रहे, जो मुसीबतज़दा थे। उनके जैसा इंसान आज मिलना बहुत मुश्किल है। उनकी भरपाई असंभव है। अब्दुल मन्नान ने दिल्ली सरकार में हेल्थ डिप्टी सेक्रेट्री के तौर पर काम किया। उन्होंने कैट के डायरेक्टर का पद भी सुशोभित किया। अंतिम दिनों तक वे दिल्ली राज्य कैंसर चिकित्सा संस्थान के संयुक्त निदेशक पद पर रहे। इस दौरान उन्होंने मानवता की कई मिसालें पेश की। मैंने दूसरा मत के लिए उनसे कुछ लेख लिखने का जब अनुरोध किया तो उन्होंने बस इतना ही कहा कि मैं तो लेखक नहीं हूं। लेकिन फिर भी आपने कहा है तो मैं जरूर लिखूंगा और उन्होंने कुछ लेख दूसरा मत के लिए लिखें, उसी में से उनका एक महत्वपूर्ण आलेख प्रकाशित कर रहा हूंः संपादक

अब्दुल मन्नान

जिस प्रकार शाह साहब भारत में कुरआन शरीफ का पहला अनुवाद फारसी में किया उसी प्रकार उनके दूसरे बेटे शाह रफीउद्दीन ने कुरआन का पहला अनुवाद उर्दू में किया। उनके तीसरे बेटे शाह अब्दुल क़ादिर ने उन अनुवादों का विस्तृत विश्लेषण तैयार किया जो ‘‘मैजेहुलकु़रआन’’ के नाम से आज भी प्रसिद्ध है। शाह साहब के चैथे बेटे शाह अब्दुल ग़नी थे, जिनके बेटे शाह इस्माईल शहीद ने शाह साहब के कामों को बहुत आगे बढ़ाया। शाह साहब तथा उनके बेटों द्वारा किए गए कुरआन के अनुवादों तथा उनकी अन्य पुस्तकों की छपाई पहली बार स्वर्गीय नवल किशोर जी के लाहौर और फिर दिल्ली स्थित प्रिटिंग प्रेस से हुई थी।

 

आज हर भारतीय इस तथ्य से अगवत है कि इस देश को अंग्रेजी शासन से मुक्त कराना तभी सम्भव हो सका जब पूरे देशवासी एक साथ मिलकर अंग्रजों के खिलाफ खड़े हो गए। परंतु कितने लोग इस देश के उस पहले व्यक्ति को जानते हैं जिन्होंने अंग्रेजों की साजिशों को भांप कर उसके खिलाफ एक अभियान शुरू कर दिया था। इतिहास उस पहले भारत के गौरवशाली पुत्र को शाह वलीउल्लाह के नाम से जानते हैं जिनका पूरा नाम शाह वली उल्लाह मोहद्दिश देहलवी है। आम मुसलमान उन्हें केवल एक ऐसे महान धार्मिक विद्वान की हैसियत से जानते हैं जिन्होंने इस्लाम और कुरआन के अनेक पहलुओं की विस्तृत रूप से व्याख्यान किया तथा मनुष्य के जीवन में इसकी प्रासंगिकता पर विभिन्न प्रकार से प्रकाश डाला और उस समय के सबसे बड़े आलिम कहलाए। परंतु शाह साहब का दूसरा रूप भी है जो और भी महत्वपूर्ण है और वह है उनकी देशभक्ति की भावना तथा देश की एकता एवम् अखंडता क़ायम रखने के लिए क्रांतिकारी योजनाओं के जन्मदाता का।

शाह साहब देश के एक ऐसे महान व्यक्ति हैं जिनकी गिनती देश के आलिमों की अग्रिम पंक्ति में तो आता ही है परंतु इसी के साथ ही देश के इतिहास के लिए अपने तौर पर एक नया मोड़ देने में भी वे अपनी मिसाल आप हैं। उदाहरणमात्र भी कोई और नहीं है।

शाह साहब का जन्म 17वीं शताब्दी अर्थात् 4 शौआल (अरबी साल का दसवां महीना) 1114 हिजरी अर्थात् 21 फरवरी 1703 ईसवी को आज के पश्चिमी उत्तर प्रदेश के फूलत गांव में उस इंकलाबी दौर में हुई जब मुगल शासनों के खिलाफ जगह जगह बगावतें हो रही थीं। वह शाह आलम शानी (द्वितीय) का शासनकाल था। बहुत सी स्वतंत्र हुकूमतें सूबों में विभाजित हो गई थीं। बंगाल, बिहार आदि के लाखों घराने कम्पनी की ज़ालिम शासन के नीचे कराह रहे थे। देशके बाकी सभी राजे और नवाब अंग्रजों के हाथों की कठपुतली बनकर रह गए थे। शाह साहब ने अपनी साठसाला जीवन में दस बादशाहों को दिल्ली की गद्दी पर बैठते और गिरते देखा। अंग्रेजों की गुलामी की जंज़ीरों को सख्त से सख्त होते देखा। देश की इन आपसी झगड़ों को अंग्रेज और फ्रांसीसी अपने हित में करने के प्रयास में लगे रहे और फिर खुले आम इस देश के शासन में भाग लेने लगे। उसी समय शाह साहब ने देश की एकता, उसकी खुशहाली एवम् उसकी उन्नति एवम् विकास के लिए अपने मूलभूत आधार तय किए और इसके द्वारा एक विशेष अभियान (तहरीक) का शुभारंभ किया जो आगे चलकर ‘‘तहरीक-वली-उल्लाही’’ कहलाई और देश की आज़ादी की प्राप्ति में वरदान सिद्ध हुआ। शाह साहब चाहते थे कि आम लोग आगे बढ़ें और भारत में लोकतंत्र सरकार की स्थापना हो। उन्होंने एक नई विचारधारा और सोच को इंकलाबी तहरीक के रूप् में जन्म दिया जिसे आज की मौजूदा भाषा में ‘आम लोगों का राज’ अथवा सोशलिस्ट डेमोक्रेटिक शासन कायम करने का अभियान अर्थात् तहरीक कही जा सकती है। यह उस समय की बात है जबकि यूरोप में न तो कार्ल माक्र्स पैदा हुए थे और न ही सोशलिज़्म की तहरीक चली थी। इससे कोई भी शाह साहब के अंदर की अद्भुत योग्यता, कुशलता, महानता, उदार विचार तथा दूरदृष्टिता का अंदाज़ा लगा सकता है।

शाह साहब की यह भी अपनी विशेषता है कि उन्होंने कु़रआन की शिक्षा को अपने अभियान का माध्यम बनाया। चूंकि उस ज़माने में फारसी आम बोलचाल की भाषा थी इसलिए भारत में कुरआन का पहला अनुवाद फारसी में किया। उस समय तक क़ुरान केवल अरबी भाषा में उपलब्ध था। इसके अतिरिक्त उन्होंने 30 से अधिक और भी पुस्तकें लिखीं जिनमें उन्होंने अपने इंकलाबी प्रोग्रामों का उल्लेख किया। उनकी उस समय की रचनाओं को देखकर बहुत आश्चर्य होता है कि आज हमारा देश जिन समस्याओं से जूझ रहा है उन पर उस महापुरुष ने किस सरल शैली में प्रकाश डाला है।

शाह साहब की पुस्तकों से उनके तीन विशेष सिद्धांतों (असूलों) का पता चलता है। पहला यह कि वह भारत को एशिया का एक शक्तिशाली देश के रूप् में देखना चाहते थे जिसकी एक केंद्रीय सरकार हो और जिसमें हर छोटे, बड़े, अमीर, गरीब सब बराबर का हिस्सा ले सकें। उनके विचार में यह तभी संभव हो सकता था जब यह पूरा देश एक केंद्रीय सरकार के अधीन हो। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘वदूरे बाज़गाह’ में लिखा है कि देश में छोटे छोटे स्वयंशासी स्टेट भले ही हों परंतु इनका एक फेडरेशन होना चाहिए जिससे किसी भी समस्या पर पूरे भारत के फायदे या नुकसान को ध्यान में रखते हुए विचार किया जा सके। फेडरेशन के लिए उन्होंने ‘इरतफ़ाक’ शब्द का प्रयोग किया है। अंग्रेजों के खिलाफ सुनियोजित तरीके से अपने अभियान को कार्यान्वित करने का उनका यह महत्वपूर्ण हथियार था।

उनका दूसरा सिद्धांत यह था कि पूरे भारतवर्ष में लोगों की धार्मिक स्वतंत्रता का आदर करते हुए, हिंदू, मुसलमान और सबके लिए एक ही प्रकार का क़ानून होना चाहिए जिसकी पाबंदी हर मज़हब के मानने वालों पर ज़रूरी हो।

तीसरी बात जिस पर शाह साहब ने सबसे अधिक बल दिया वह यह था कि सभी प्रकार के मज़दूर पेशे और कारीगरों को उनके उचित अधिकार दिलाए जायंे और उन पर कम से कम बोझ रखा जाए। वह एक ऐसी हुकूमत चाहते थे जिसमें किसी भी व्यक्ति को अपने जीवन की मूल आवश्यकताओं के लिए तरसना न पड़े। उनका यह भी मानना था कि इन्सानी दिमाग उसी समय तरक्की एवम् उन्नति के जौहर दिखा सकता है जबकि वह रोजाना की आर्थिक जरूरतों तथा इस प्रकार की अन्य समस्याओं से यथासम्भव चिन्तामुक्त हो।

उन्होंने 5 मई 1731ई0 को ‘जमीअते-मरकज़िया’ अर्थात् सेंट्रल कमिटी नाम का संगठन बनाया। जिसका एकमात्र उद्देश्य भारत में राजनीतिक क्रांति लाना था। इस जमाअत के चार बुनियादी सिद्धांत थे

1 खुदापरस्ती

2 इंसाफ

3 तर्बीयते नफस यानी अपने चलन को ठीक करना

4 ज़ब्ते नफ़स यानि अपने व्यवहार में संयम बरतना।

देश के अनेक भागों में इसकी शाखें खोली गईं। शाह साहब के द्वारा प्रारंभ की गई तहरीक में बाद में आलिमों की जमात के अतिरिक्त और दूसरे देशभक्त शामिल होते चले गए और जिसने आज़ादी की तहरीक का विशाल रूप धारण कर लिया। इस मशाल को प्रज्वलित करने का श्रेय केवल शाह साहब को ही जाता है। वे अपनी तहरीरों तथा लिखित विचारों द्वारा इस क्रांति को आकार देते रहे। वे कई बार अंग्रेजों के षडयंत्र का शिकार हुए मगर बचते चले गए। दिल्ली के एक हाकिम ने शाह साहब के हाथों के पंजे उतरवा दिए ताकि वे अपने क्रांतिकारी विचारों को लिखित रूप में प्रचार प्रसार न कर सकें। साथ ही उनके बेटों को सल्तनत से बाहर निकलवा दिया। शाह साहब अंग्रेजों के इन जुल्मों और अत्याचारों को हंसते हंसते सहन करते रहे परंतु सब्र और धैर्य का दामन नहीं छोंड़ा न उनके मनोबल में ही कोई कमी आई।

शाह साहब ने अपनी इस मातृभूमि के लिए बहुत कुछ करने का संकल्प किया था। परंतु कुदरत द्वारा इस के लिए उन्हें बहुत सीमित समय प्रदान किया गया। ऐसा लगता है कि शाह साहब को इसका आभास हो गया था और इस लिए इस दरवेस ने अपने जीवन के एक एक लम्हे का बड़ी दूरदष्टिता से सदुपयोग किया और अपने क्रांतिकारी विचारों का अनमिट छाप छोड़ने में पूर्णतः सफल रहे और फिर 20 अगस्त 1762 का वह दिन भी आ गया जब वे अपनी जमाअत का पूरा बोझ अपने सबसे बड़े बेटे शाह अब्दुल अजीज़ के सर पर रखकर इस संसार को छोड़कर अपने मालिके हक़ीक़ी से जा मिले। जिस भारत की उन्होंने कल्पना की थी उसे वे अपनी आंखों से नहीं देख पाए। और जिस इंकलाब की चिंगारी को उन्होंने हवा दी थी उसे शोले बनकर अपना कार्य करते देखना भी उन्हें नसीब न हो सका। फिर भी उन्होंने एक ऐसी जमाअत की स्थापना के साथ साथ उसे आगे बढ़ाने का एक ऐसा विस्तृत कार्यक्रम का ब्यौरा तैयार कर गए जो आगे देश व देशवासियों की रहनुमाई कर सके। और जिस के द्वारा समय की आवश्यकता अनुसार हिंदुस्तान को एक प्रबल एवं स्थिरता प्रदान करने के साथ साथ हरा-भरा बनाने में पूर्ण रूप से सहायक सिद्ध हो। शाह साहब की ‘‘वलीउल्लाही तहरकी’’ ने जमीअतुल-उलेमाए-हिंद के रूप में पहले उलेमाओं में फिर पूरे देशवासियों में आज़ादी की एक ऐसी रूह फूंक दी, जिससे अंग्रेज घबरा गए और विवश होकर उन्हें इस देश को अपनी आजादी देनी पड़ी।

ढाई सौ साल गुजर जाने के बाद भी शाह साहब द्वारा निर्मित सुनहरे उसूल देश तथा विश्व की वर्तमान ज्वलित समस्याओं के समाधान के लिए पूर्णरूप से प्रांसगित है। शाह साहब की मृत्यु के बाद उन्हें दिल्ली के मेहदियान कब्रस्तिान में दफन कर दिया गया, जो अभी मौलाना आज़ाद मेडिकल कॉलेज के कैम्पस, नई दिल्ली में स्थित है साथ ही वहीं उनके बेटों के भी मज़ार है।

जिस प्रकार शाह साहब भारत में कुरआन शरीफ का पहला अनुवाद फारसी में किया उसी प्रकार उनके दूसरे बेटे शाह रफीउद्दीन ने कुरआन का पहला अनुवाद उर्दू में किया। उनके तीसरे बेटे शाह अब्दुल क़ादिर ने उन अनुवादों का विस्तृत विश्लेषण तैयार किया जो ‘‘मैजेहुलकु़रआन’’ के नाम से आज भी प्रसिद्ध है। शाह साहब के चैथे बेटे शाह अब्दुल ग़नी थे, जिनके बेटे शाह इस्माईल शहीद ने शाह साहब के कामों को बहुत आगे बढ़ाया। शाह साहब तथा उनके बेटों द्वारा किए गए कुरआन के अनुवादों तथा उनकी अन्य पुस्तकों की छपाई पहली बार स्वर्गीय नवल किशोर जी के लाहौर और फिर दिल्ली स्थित प्रिटिंग प्रेस से हुई थी।

देश के इस महापुरुष, जिसने अपने देश के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया और अपने लिए कुछ नहीं चाहा के योगदान का प्रचार प्रसार न करना इनके साथ बड़ी नाइंसाफी है। दूसरा मत पत्रिका में इस आज़ादी के दीवाने के जीवन पर एक संक्षिप्त जानकारी देकर मैं अपनी और अपनी सोसायटी की ओर से श्रद्धाजंलि अर्पित करता हूं। खुदा उन्हें, उनके आबा-ओ-अजदाह तथा परिवार के सभी सदस्यों को जन्नतुलफिरदौस में जगह अता करे। आमीन!

(नोट- इस लेख में प्रकाशित तथ्य डा0 विश्म्ंभर नाथ पांडे जी की पुस्तक ‘आज़ादी के दीवाने मुस्लिम देशभक्त’ पर आधारित है। जिसे गांधी स्मृति एवम् दर्शन समिति नई दिल्ली ने दिसंबर 1992 में प्रकाशित किया था।)

(लेखक, दिल्ली राज्य कैंसर चिकित्सा संस्थान के संयुक्त निदेशक पद से अवकाश प्राप्त)