श्रीनाथ खंडेलवाल के बहाने

ए आर आजाद
बेटे ने जब कहा पापा चांद चाहिए
तो पिता ने हनुमान की तरह
पूरा आसमान ही उठा कर थमा दिया
जिसमें चांद भी,
जगमग करते तारे भी,
अंगड़ाई लेते बादल भी,
और कल उगने वाले सूरज भी होते हैं
पिता को मालूम है
बेटे की चाहत
उसकी सांसों से ज्यादा क़ीमती है
बेटे की मुस्कान
उसके लिए सबसे मूल्यवान है
बेटे के आंसूं
देख नहीं सकता कोई पिता
इसलिए
ज़िंदगी भर
बेटे के लिए समर्पित हो जाता है पिता
लेकिन
एक दिन बेटा को जब लगता है कि
अब यह ‘बिल्ली’ चूहा खाने लायक़ नहीं रही
तो फिर उसे घर से निकाल देता है
कुछ बेटे ऐसे क्यों होते हैं?
कुछ के हालत को देखकर
कुछ लोग ऐसा सोचने लगते हैं
लेकिन वे भी आख़िरकार वही करते
जिसकी सज़ा
कोई न कोई बाप भुगत रहा होता है…!
यह कविता बहुत कुछ कहती है। यह कविता आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी कल रहेगी। दुनिया के पिता के सामने यह सवाल यक्ष प्रश्न बना ही रहेगा। दरअसल पिता का हृदय पुत्र के लिए एक ऐसी बहती धारा बन जाती है, जो उसकी हसरतों की नाव को मंजिल तक पहुंचाने और सोच को परवान चढ़ाने में मददगार साबित होती है। हर पुत्र इसी धारा में पिता का बहाव देखना चाहता है। और पिता भी पुत्र की ख़ुशी के लिए अपने आपको त्याग की प्रतिमूर्ति और सेवक बन जाना चाहता है। यह सोच इसलिए ग़लत नहीं है कि यह सोच प्रकृति प्रदत्त होती है। प्रकृति के वरदान की तरह होती है। और यह सोच इंसानियत को ज़िंदा रखने का सबसे बड़ा हथियार भी होती है। लेकिन जब पिता संस्कार की जगह सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी संतान को सत्कार ही देता है तो फिर वह बच्चा संस्कार के अभाव में पिता के सत्कार को अपनी जवानी और उमंगों की सत्ता में भूल जाता है। जब बच्चा जवानी की सत्ता और उमंग के सिंहासन पर बैठने लगता है, तो पिता अपने बेटे की बैसाखी के सहारे पर टेक लगाने लगता है। वह टेक कितनी कारगर होती है- वह सबकुछ बचपन में दिए गए उसके संस्कार पर निर्भर करता है।
इसलिए बच्चों को सत्कार के साथ-साथ मां-बाप को बच्चों के संस्कार पर भी ध्यान देना चाहिए। सिर्फ़ बच्चों के लिए संपत्ति जमा कर देने या ज़मीन और जागीर तैयार कर देने से एक दिन वह बच्चा संस्कार विहीन होकर ऐसी भूल कर ही देता है, जिससे उसे ज़िंदगी भर की शर्मिंदगी उठानी पड़ती है। और बुढ़ापे के आलम में माता-पिता को बेटे के दर्द का बोझ अपनी बुज़ुर्गियत की पीठ पर लादे रहना पड़ता है। और यह बोझ जब बर्दाश्त से बाहर हो जाता है, तो फिर उसकी सांसें थम जाती है। और फिर क़ब्र में एक मुट्ठी मिट्टी देने के लिए भी वह बच्चा मौजूद नहीं होता है। ऐसा ही कुछ तो चर्चित साहित्यकार श्रीनाथ खंडेलवाल के साथ हुआ। बच्चों के लिए अथाह और अकूत संपत्ति जमा कर दी। लेकिन बावजूद इसके बच्चों ने घर से बाहर का रास्ता दिखा दिया। मौत ने जब आगे बढ़कर थाम लिया, तो संतान को इतनी भी फ़ुर्सत नहीं मिल सकी कि वो श्मशान घाट पर जाकर उन्हें मुखाग्नि दे सकें। यह वक्Þत सोचने का है। सबको सोचने का है। एक सभ्य समाज बनाने का है। हिन्दू-मुसलमान करने का नहीं। ऊपर की पंक्ति के बाद सबको नीचे की पंक्ति पर गहराई से सोचने का है-
“पूत सपूत तो का धन संचय,
पूत कपूत तो का धन संचय”
क्षमा याचना के साथ।
जय हिन्द! जय भारत!!’