March 15, 2025

Doosra Mat

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दिनकर, आचार्य हाशमी और हिमालय कविता

ए आर आज़ाद

 

हिन्दुस्तान की साहित्यिक धरती उर्वरा है। यहां के कई सूबे ऐसे हैं, जिनके लाल ने गुदड़ी के लाल बनकर भी देश व दुनिया के सामने साहित्यिक कृति में अपना एक मुक़ाम हासिल किया है। इसी कड़ी में बिहार भी आता है। बिहार के कई सपूतों ने देश में अपना वजूद साहित्य के क्षेत्र में हिमालय की तरह खड़ा किया है। बिहार का बेगूसराय ज़िला इसी की बानगी है। यहां बेगूसराय के दो लाल की चर्चा की जा रही है। बेगूसराय के एक लाल रामधारी सिंह दिनकर हैं तो दूसरे लाल आचार्य फ़ज़लुर रहमान हाशमी हैं। दोनों ने हिमालय पर कविता लिखकर साहित्य की समृद्धि में एक विशाल परिचय दिया है।

 

रामधारी सिंह दिनकर की हिमालय कविता उनके काव्य-संग्रह हुंकार में संकलित है। हुंकार काव्य-पुस्तक 1938 में प्रकाशित हुई थी। लेकिन दिनकर ने यह कविता 1933 में लिखी थी। हिमालय शीर्षक से ही आचार्य फ़ज़लुर रहमान हाशमी ने 28 साल बाद कविता लिखी। उन्होंने यह कविता सन 1961 में लिखी। उनकी यह कविता आचार्य हाशमी के काव्य-संग्रह रश्मि राशि में प्रकाशित हुई।

 

दिनकर ने लिखा-

मेरे नगपति! मेरे विशाल!

साकार, दिव्य, गौरव विराट्,

 

दिनकर ने अपनी इस कविता में हिमालय को सीधे तौर पर हिमालय कहकर संबोधित नहीं किया। उन्होंने हिमालय को नगपति कहकर संबोधित किया है। और उसके स्वरूप को दिव्य और विराट बताया है।

 

 

आचार्य हाशमी ने अपनी हिमालय कविता में हिमालय के लिए यथावत शब्द हिमालय का ही प्रयोग किया है। उन्होंने हिमालय के विराट स्वरूप को शब्दों की जगह ज़हन में रखते हुए उसके संदेश को बड़ा माना है। उन्होंने अपनी इस हिमालय कविता में हिमालय के संदेश, संकेत और पैग़ाम को जनमानस के लिए प्रेरक और प्रेरणादायक बना दिया है। दिनकर की तरह उन्होंने वैसे शब्द का इस्तेमाल नहीं किया है, जिसके लिए आम व ख़ास लोगों के लिए हिमालय कविता को समझना दुश्कर हो जाए। उन्होंने हिमालय के बेबाक संदेश को बेबाक तौर पर लेकिन सहज अंदाज़ में सरल शब्दों में बताया है।

 

आचार्य फ़ज़लुर रहमान हाशमी की हिमालय कविता की बानगी पर जब आप नज़र डालेंगे तो आप भी उसकी सहजता, सरलता और उसके संदेशात्मकता पर अपनी मुग्धता को छुपा नहीं पाएंगे।

 

कह रहा होकर हिमालय यह खड़ा।

आदमी वह जो न आफ़त से डरा।।

 

दिनकर ने अपनी अग्रलिखित पंक्ति के ज़रिए हिमालय को विभिन्न विश्लेषणों से चमत्कृत किया है।

 

पौरुष के पुंजीभूत ज्वाल!

मेरी जननी के हिम-किरीट!

 

मेरे भारत के दिव्य भाल!

मेरे नगपति! मेरे विशाल!

 

आचार्य हाशमी ने अपनी हिमालय कविता में हिमालय की प्रशंसा में उसे प्रेरक और सीख देने वाला बताया है। आचार्य हाशमी की इस काव्य में हिमालय एक शिक्षक है, एक युग-पुरुष है, एक महान द्रष्टा है, एक महान संदेशवाहक है। और सत्य मार्ग बताने वाला सबसे बड़ा मार्गदर्शक है। इस कविता में आचार्य हाशमी ने हिमालय को एक लैंपपोस्ट की तरह दिखाया है, जो अंधेरे को चीरते हुए बटोही को बाट की पहचान कराता है।

 

आचार्य हाशमी की हिमालय कविता की अगली चार पंक्तियां इस बात की तस्दीक़ करती हुई नज़र आती हैं।–

 

देख लो मुझको खड़ा हूं युग-युगों,

लाख आये विघ्न औ बरबादियाँ

पर डिगा पाये न मुझको वह कभी

यार – दुश्मन और लालच आँधियाँ

 

आगे दिनकर अपनी हिमालय कविता के अंत में कहते हैं।–

 

फट जाय कुहा, भागे प्रमाद।

तू मौन त्याग, कर सिंहनाद,

 

दिनकर अपनी इस कविता में आह्वान करते हैं कि यह जो समय है, वह आलस्य त्यागने का समय है। कुहासे को समाप्त करने का समय है। मौन त्यागने का समय है। और अत्याचार के ख़िलाफ़ स्वर बुलंद करने का समय है। हिमालय के ज़रिए भारत की तत्कालीन स्थिति पर परिवर्तन के मार्ग का अनुसरण करने का यह द्योतक भी है।

 

आचार्य फ़ज़लुर रहमान हाशमी अपनी हिमालय कविता के अंतिम चरण में कहते हैं-

 

कौन है संसार में छोटा अरे!

कौन है संसार में खोटा अरे!

आदमी की शान सर ऊँचा रहे

पैर नीचे, कर मगर ऊँचा रहे

 

आचार्य हाशमी हिमालय के ज़रिए आदमी को हिमालय की तरह शान से खड़े रहने का आह्वाण करते हैं। वे कहते हैं कि आदमी वही है, जो अपने मयार में बुलंद हो। अपनी आन-बान और शान में बुलंद हो। सादगी और सच्चाई में बुलंद हो। इंसानियत और मानवता के पैमाने और पायदान पर शीर्ष पर हो। यानी उनकी शान नगपति की तरह विशाल हो।

 

अब रामधारी सिंह दिनकर और आचार्य फ़ज़लुर रहमान हाशमी की पूरी कविता हिमालय आपके अवलोकन के लिए हुबहु दृश्यमान हैं।

 

 

हिमालय

 

 

रामधारी सिंह दिनकर

 

मेरे नगपति! मेरे विशाल!

साकार, दिव्य, गौरव विराट्,

 

पौरुष के पुंजीभूत ज्वाल!

मेरी जननी के हिम-किरीट!

 

मेरे भारत के दिव्य भाल!

मेरे नगपति! मेरे विशाल!

 

युग-युग अजेय, निर्बंध, मुक्त,

युग-युग गर्वोन्नत, नित महान्,

 

निस्सीम व्योम में तान रहा

युग से किस महिमा का वितान?

 

कैसी अखंड यह चिर-समाधि?

यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान?

 

तू महाशून्य में खोज रहा

किस जटिल समस्या का निदान?

 

उलझन का कैसा विषम जाल?

मेरे नगपति! मेरे विशाल!

 

ओ, मौन, तपस्या-लीन यती!

पल भर को तो कर दृगुन्मेष!

 

रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल

है तड़प रहा पद पर स्वदेश।

 

सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र,

गंगा, यमुना की अमिय-धार

 

जिस पुण्यभूमि की ओर बही

तेरी विगलित करुणा उदार,

 

जिसके द्वारों पर खड़ा क्रांत

सीमापति! तूने की पुकार,

 

‘पद-दलित इसे करना पीछे

पहले ले मेरा सिर उतार।’

 

उस पुण्य भूमि पर आज तपी!

रे, आन पड़ा संकट कराल,

 

व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे

डँस रहे चतुर्दिक विविध व्याल।

 

मेरे नगपति! मेरे विशाल!

कितनी मणियाँ लुट गयीं? मिटा

 

कितना मेरा वैभव अशेष!

तू ध्यान-मग्न ही रहा; इधर

 

वीरान हुआ प्यारा स्वदेश।

किन द्रौपदियों के बाल खुले?

 

किन-किन कलियों का अंत हुआ?

कह हृदय खोल चित्तौर! यहाँ

 

कितने दिन ज्वाल-वसंत हुआ?

पूछे सिकता-कण से हिमपति!

 

तेरा वह राजस्थान कहाँ?

वन-वन स्वतंत्रता-दीप लिये

 

फिरनेवाला बलवान कहाँ?

तू पूछ, अवध से, राम कहाँ?

 

वृंदा! बोलो, घनश्याम कहाँ?

ओ मगध! कहाँ मेरे अशोक?

 

वह चंद्रगुप्त बलधाम कहाँ ?

पैरों पर ही है पड़ी हुई

 

मिथिला भिखारिणी सुकुमारी,

तू पूछ, कहाँ इसने खोयीं

 

अपनी अनंत निधियाँ सारी?

री कपिलवस्तु! कह, बुद्धदेव

 

के वे मंगल-उपदेश कहाँ?

तिब्बत, इरान, जापान, चीन

 

तक गये हुए संदेश कहाँ?

वैशाली के भग्नावशेष से

 

पूछ लिच्छवी-शान कहाँ?

ओ री उदास गंडकी! बता

 

विद्यापति कवि के गान कहाँ?

तू तरुण देश से पूछ अरे,

 

गूँजा कैसा यह ध्वंस-राग?

अंबुधि-अंतस्तल-बीच छिपी

 

यह सुलग रही है कौन आग?

प्राची के प्रांगण-बीच देख,

 

जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल,

तू सिंहनाद कर जाग तपी!

 

मेरे नगपति! मेरे विशाल!

रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,

 

जाने दे उनको स्वर्ग धीर,

पर, फिरा हमें गांडीव-गदा,

 

लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।

कह दे शंकर से, आज करें

 

वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार।

सारे भारत में गूँज उठे,

 

‘हर-हर-बम’ का फिर महोच्चार।

ले अँगड़ाई, उठ, हिले धरा,

 

कर निज विराट् स्वर में निनाद,

तू शैलराट! हुंकार भरे,

 

फट जाय कुहा, भागे प्रमाद।

तू मौन त्याग, कर सिंहनाद,

 

रे तपी! आज तप का न काल।

नव-युग-शंखध्वनि जगा रही,

तू जाग, जाग, मेरे विशाल!

 

हिमालय

 

आचार्य फ़ज़लुर रहमान हाशमी

 

कह रहा होकर हिमालय यह खड़ा।

आदमी वह जो न आफ़त से डरा।।

 

देख लो मुझको खड़ा हूं युग-युगों,

लाख आये विघ्न औ बरबादियाँ

पर डिगा पाये न मुझको वह कभी

यार – दुश्मन और लालच आँधियाँ

 

उठ खड़ा हो सोचता है क्या पड़ा।

आदमी वह जो न आफ़त से डरा।।

 

कौन है संसार में छोटा अरे!

कौन है संसार में खोटा अरे!

आदमी की शान सर ऊँचा रहे

पैर नीचे, कर मगर ऊँचा रहे

 

कर्म से कोई बना छोटा – बड़ा।

आदमी वह जो न आफ़त से डरा।।

 

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